श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय 7 ( ज्ञानविज्ञानयोग ) | Bhagwat Geeta Chapter7 Gyan Vigyan Yoga (Complete)

श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय 7 ( ज्ञानविज्ञानयोग ) | Bhagwat Geeta Chapter7 Gyan Vigyan Yoga (Complete)

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  • 17 August 2023
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Table of Contents

सातवाँ अध्याय- ज्ञानविज्ञानयोग- श्रीमद्भगवद्‌गीता

अध्याय 7 श्लोक 1-7 विज्ञानसहित ज्ञान का विषय

अध्याय 7, श्लोक 1

श्रीभगवानुवाचः-मयि आसक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तत् शृणु ।।

 अर्थात- पृथ्वीश्वर! {सब तरह} मेरा आश्रय लेने वाला, मेरे {सौम्य रूप में} आसक्त हुए मन वाला,  {सहज रीति} योग लगाते हुए मेरे {व्यक्त+ अव्यक्त} सम्पूर्ण {विराट} स्वरूप को जिस प्रकार होकर}  {अटूट श्रद्धा से} संशयहीन हुआ जानेगा, उसे {विस्तारपूर्वक मेरे सन्मुख सुन।

अध्याय 7, श्लोक 2 

ज्ञानं ते अहं सविज्ञानं इदं वक्ष्यामि अशेषतः।
यत् ज्ञात्वा न इह भूयः अन्यत् ज्ञातव्यं अवशिष्यते।। 7/2

 अर्थात- मैं तुझे विशेषज्ञान= {योग} सहित इस {सच्चीगीता एडवांस} ज्ञान को पूरी तरह { विस्तार से} {प्रश्नोत्तर पूर्वक} बताऊँगा, जिसे जानकर {स्व+दर्शन+चक्रधारी बने तेरे लिए } पुनः इस {असार बने} संसार में अन्य {वेद-शास्त्रादि} जानने योग्य {कुछ भी} बाकी नहीं बचेगा।

अध्याय 7, श्लोक 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ 7/3

अर्थात- {जन्म-2 की पुण्यशील} हज़ारों मनुष्यात्माओं में कोई एक सिद्धि के लिए {अनवरत/लगातार} यत्न करता है। {नं.वार} यत्नकर्ता सिद्धों में भी मुझको (कपिलमुनि-जैसा सत्य सनातनी धर्मपिता, साकार रूप में आए हुए निराकार शिवज्योति को } यथार्थ रीति जानता है।

अध्याय 7, श्लोक 4

भूमिः आपः अनलः वायुः खं मनो बुद्धिः एव च।
अहङ्कारः इति इयं मे भिन्ना प्रकृतिः अष्टधा । 7/4

अर्थात- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश- {इन पाँचों साररूप जड़ तत्वों सहित जड़त्वमई बुद्धि वाले, } {अदर्शनीय & फिर चेतन जैसे} मन-बुद्धि और अहंकार {रूप देवात्माएँ} भी, इस तरह मे इयं प्रकृतिः अष्टधा भिन्ना मेरी {बाबा वाली साकारी+निराकारी शिव } ← यह प्रकृष्ट कृति आठ प्रकार से विभक्त है।

अध्याय 7, श्लोक 5

अपरा इयं इतः तु अन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो यया इदं धार्यते जगत्।। 7/5

अर्थात- हे {चेतन} दीर्घबाहु! यह {अर्जुनरथ} नीची प्रकृति है; किंतु इस {धरणीरूपा जड़प्रकृति} के  अलावा मेरी जीवंत प्राणीभाव वाली {योग द्वारा भरीपूरी ऊर्जारूपा आत्म-} प्रकृति को श्रेष्ठ जान, जिस {परा प्रकृति} से यह {जड़-चेतन प्राणीमात्र} जगत् {सहज ही} धारण किया जाता है।

अध्याय 7, श्लोक 6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणि इति उपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा ।। 7/6

अर्थात- {जड़+चेतन} सब प्राणियों का यह {सार भूत मूर्तिरूप देह+शिवसमान आत्मा} उद्गम है, ऐसा {तू खुद को} जान ले {और} मैं {सदाशिव ज्योति+बाबा} समस्त {जड़-जंगम प्राणीमात्र} जगत् का {सिर्फ इस पुरुषोत्तम संगमयुग में} उत्पत्तिकर्ता तथा विनाशकर्ता हूँ, {चतुर्युगी में नहीं। }

अध्याय 7, श्लोक 7

मत्तः परतरं न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वं इदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || 7/7

अर्थात- हे ज्ञानधनजेता अर्जुन! मेरे से श्रेष्ठतर {इस संसार सहित तीनों लोकों में} अन्य कुछ भी न अस्ति सूत्रे मणिगणाः इव इद नहीं है। {मेरे स्नेह के} धागे में {रुद्राक्ष के} पिरोए मणकों-जैसा यह {टोटल प्राणियों का} सारा {5-7 सौ करोड़ का मानवीय } जगत मेरे {नं. वार प्रीति के धागे } में {बेहद ड्रामानुसार ही} पिरोया हुआ है।

    -प्राय: शिवज्योति समान बनी अर्जुन/आदम की आत्मज्योति परा प्रकृति आत्मा +शंकर-मूर्तिरूप अपरा प्रकृति ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति, पालना और विनाश, तीनों का अविनाशी आधार है।} (यही बात पीछे देखें, गीता 7-5)।

अध्याय 7 श्लोक 8-12 सम्पूर्ण पदार्थों में कारणरूप से भगवान की व्यापकता का कथन

अध्याय 7, श्लोक 8

रसः अहं अप्सु कौन्तेय प्रभा अस्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नूषु || 7/8

अर्थात- हे देहभान-हारिणी आत्माभिमानी} कुंती के पुत्र अर्जुन! {ज्ञान-} जल में रस मैं {हूँ} {चेतन ज्ञान-} सूर्य {विवस्वत} & {कृष्ण} चन्द्र की कान्ति मैं हूँ। सब वेदों में {‘अ+उ+म’रूप }  ऊँकार, {ब्रह्मारूप} आकाश में शब्द, पुरुषों में {जगत्पिता द्वारा मैं शिव ही} पुरुषत्व हूँ।

अध्याय 7, श्लोक 9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्च अस्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्च अस्मि तपस्विषु।। 7/9

अर्थात- {अखंड योगऊर्जा से} पृथ्वी माता में पवित्र {तन्मात्रा की} सुगन्ध और अग्नि दवरूप} में {ज्ञानप्रकाश & योगूर्जा का} तेज हूँ और प्राणीमात्र में {प्राणवायु & ज्ञानजल की} जीवनीशक्ति और तपस्वियों में दहभान को तपाने वाले ज्योति रूप आत्म-स्मृति की} तपशक्ति {सदाकालीन शिवज्योति मैं ही हूँ।

अध्याय 7, श्लोक 10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनं ।
बुद्धिः बुद्धिमतां अस्मि तेजः तेजस्विनां अहं।। 7/10

अर्थात- हे पृथ्वीश्वर! सब {श्रेष्ठ या क्षुद्र) प्राणियों का {सतयुग-आदि कालीन पु. संगम का} सनातन बीज {शंकर/अर्जुन/आदम} मुझे जान।{सर्व धर्मपिताओं-जैसे} बुद्धिमानों की  {श्रेष्ठतम} बुद्धि {और} तेजस्वियों का {नं. वार योगऊर्जा रूप} तेज {भी} मैं {“शिव ही} हूँ।

    -‘कहते हैं हर-हर महादेव। सबके दुख हरने वाला। वह भी मैं हूँ। शंकर नहीं है। (मु. 4-11-78 पृष्ठ 2 आदि)

अध्याय 7, श्लोक 11

बलं बलवतां च अहं कामरागविवर्जितं ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामः अस्मि भरतर्षभ।। 7/11

अर्थात- मैं {सदा शिवबाबा ही} बलवानों का काम {देवता} & {लगाव-झुकाव वाली} आसक्ति से  सर्वथा रहित बल हूँ और हे {विष्णुरूप} भरतश्रेष्ठ! {सतयुगादि के सदा स्थिर आत्मा वाले} {विष्णुलोकीय} प्राणियों में धर्मानुकूल {स्त्री-संग की प्यार भरी, अहिंसक और सुखदाई} कामना हूँ।

अध्याय 7, श्लोक 12

ये चैव सात्त्विका भावा राजसाः तामसाश्च ये।
मत्त एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि।। 7/12

अर्थात- और भी जो {संसार में युगानुरूप क्रमशः} सात्विक, राजसी और तामसी {प्रकृतिगत {अवसर्पिणी} भाव हैं, उनको मेरे {कैलाशी वासी महादेव} से ही हैं- ऐसा जान। मैं {ब्रह्मलोकवासी सदाशिव} उनमें {व्यापी} नहीं; किन्तु वे मेरे {महादेव मूर्ति में काल क्रमानुसार} हैं।

अध्याय 7 श्लोक 13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निन्दा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा

अध्याय 7, श्लोक 13

त्रिभिः गुणमयैः भावैः एभिः सर्वं इदं जगत्।
मोहितं न अभिजानाति मां एभ्यः परं अव्ययं ।। 7/13

अर्थात- {मानवों के पिता आदम के सत-रज-तम } इन तीन गुणयुक्त भावों द्वारा {अज्ञान से} मोहित हुआ यह {अधोमुखी सृष्टि का} सारा संसार इन {गुणों} से परे मुझ अविनाशी, {तुरीया सदाशिव-ज्योति के समान बने एक मुखी रुद्राक्ष} को नहीं जानता।

अध्याय 7, श्लोक 14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। 7/14

अर्थात- निश्चय ही यह दिह+ली में महरौली के मायापति बने} मेरे {महादेव’ वाली} त्रिगुणमयी दैवी {महा} माया को पार करना कठिन है। जो { तन-मन-धनादि सर्व रूप से} मेरी {शिव+बाबा की} ही {अव्यभिचारी} शरण लेते हैं, वे {अष्टमूर्ति देवात्माएँ इस {बीजरूप} माया को पार कर जाते हैं। 

     -(शंकर क्या करते हैं? उनका पार्ट ऐसा वण्डरफुल है जो तुम विश्वास कर न सको। (मु.ता.14.5.709.1 आदि)

अध्याय 7, श्लोक 15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपयन्ते नराधमाः ।
मायया अपहृतज्ञानाः आसुरं भावं आश्रिताः ।। 7/15

 अर्थात- (इस महा) माया द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ( चैतवादी दनुपुर दैत्य) आसुरी हिंसा के मनमाने भाव के आश्रित हुए. (भन्द्रियों की भी हिंसा वाले) कर्मी और ऐसे ही  (नर-निर्मित नरक के) नीच मनुष्य मूर्ख लोग मेरी शरण में (सहज रीति) नहीं आते।

अध्याय 7, श्लोक 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनः अर्जुन ।
आत जिज्ञासुः अर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। 7/16

 अर्थात-  हे भरत/ विष्णु वंश में श्रेष्ठ अर्जुन! (द्वापुर युग से चार प्रकार के पुण्यकर्मी क्षीणपापा लोग ( ‘मुझ (निराकार + साकार) को’ भजते हैं- विपत्तिग्रस्त, कुछ जानने के इच्छुक, [ धनार्थी और तीनों लोकों में सब कुछ जानने-समझने के प्रयासी) = ज्ञानी।

अध्याय 7, श्लोक 17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिः विशिष्यते ।
प्रियः हि ज्ञानिनः अत्यर्थ अहं स च मम प्रियः ।। 7/17

 अर्थात- उन (पूर्वजन्मकृत पुण्य कर्मों के अभ्यासियों) में एक (हीरो पावधारी+शिवज्योति) की (अध्यभिचारी) याद बाला  सदा योगी, ज्ञानी (त्रिनेत्री महादेवात्मा) विशेष श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी को में (शिव ज्योति} प्रिय हूँ और वह (मेरा अटूट ज्ञानवारिस) मुझको (सदा}] अति प्रिय है। 

          { बाबा कहते ज्ञानी तू (1) आत्मा ही मुझे (सदाशिव को अति) प्रिय है। ऐसे नहीं कि योगी प्रिय नहीं है। जो (जितना) ज्ञानी होगा वह (उतना) योगी भी जरूर होगा। (मु.ता.4.12.88 पृ.2 मध्य) (‘ज्ञानी प्रभुहिं विशेष पियारा’} (तु. रामायण) (जैसे ‘ज्ञानिनामग्रगण्यं’ हनुमान भी विशेष प्रिय कहा गया है।}

अध्याय 7, श्लोक 18

उदाराः सर्व एव एते ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतं ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मां एवं अनुत्तमां गर्ति ।। 7/18

  अर्थात-  (यो तो) ये सारे चारों ही श्रेष्ठ हैं: किन्तु (सम्पूर्ण)) ज्ञानी (जैसे मेरी अपनी आत्मा  ही है- (ये ) मेरा मत है। क्योंकि यह योगी आत्मा मुझ (सदाशिव ज्योति की परमब्रह्म्लोकीय ) सर्वोतम गति में ही “आधारित है। इसीलिए सम्पूर्ण संगठित चतुर्मुखी ब्रह्म को हज़ार भुजाओं वाला अर्जुन भी दिखाते हैं, किन्तु अमोघवीर्य शंकर को इतनी और ऐसी सहयोगी भुजाएँ नहीं दिखाते।} 

     “जिनके कटु और अधार नहीं तिनके तुम ही रखवारे हो।” (तु. रामायण) और तो सभी सीताएँ हैं जो अपरा प्रकृति+माया के आधीन हो जाती हैं। इसलिए यादगार में आज भी गाँवों में गाते हैं- ‘राजा एक राम, भिखारी सारी दुनियाँ। }

अध्याय 7, श्लोक 19

बहूनां जन्मनां अन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्व इति स महात्मा सुदुर्लभः ।। 7/19

  अर्थात- ज्ञानी बहुत (अर्थात् 84) जन्मों के अंत ( वानप्रस्थ / वाणी से परे की स्थिति) में मुझको (ही )  रचना} है, ऐसा वह महान आत्मा (महादेव, एक मुखी रुद्राक्ष संसारभर में) बढ़ा दुर्लभ है।

अध्याय 7 श्लोक 20-23 अन्य देवताओं की उपासना का विषय

अध्याय 7, श्लोक 20

कामैः तैः तैः हृतज्ञानाः प्रपद्यन्ते अन्यदेवताः।
तं तं नियमं आस्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।। 7/20

  अर्थात- उन-2 (इन्द्रिय भोगों की कामनाओं से अपहृत ज्ञान वाले, {द्वापुर से} उन-2 {नीची कुरी में) (कन्वर्टिड अधकचरे ज्ञानी ब्राह्मण मुनियों के नियमों का आधार ले, {अनादि निश्चित ड्रमानुसार बरबस) अपने {-2 पुरुषोत्तम संगमयुगी शूटिंग के स्वभाव से बँधे हुए {पूर्वजन्मकृत अच्छे-बुरे कमांनुसार) दूसरे {नीची कुरी के ब्राहमण-} देवों की शरण में {शूटिंग-प्रमाण कल्प-2} जाते रहते हैं।

अध्याय 7, श्लोक 21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धया अर्चितुं इच्छति।
तस्य तस्य अचलां श्रद्धां तां एव विदधामि अहं।। 7/21

  अर्थात-जो-2 भक्त {रूपी रावण के बंधन की आदी सीताएँ} जिस-2 {नं वार ब्राह्मण-} तन की श्रद्धा – {भक्ति भावना से अर्चना के लिए इच्छा करते हैं, उस-2 {सम्बन्ध-सम्पर्क या संसर्ग में) उसी {लगन की} अचल श्रद्धा को मैं {कल्प-2 पु. संगमी शूटिंग में} निश्चित करता हूँ।

{जो जिनकी पूजा (मनौती) करते हैं वह उसी धर्म के हैं न! (मु.ता.4.5.74 पृ.3 आदि) (गीता 7-23 भी)} 

अध्याय 7, श्लोक 22

स तया श्रद्धया युक्तः तस्य आराधनं ईहते।
लभते च ततः कामान् मया एव विहितान् हि तान्।। 7/22

  अर्थात-उस श्रद्धा से लगा हुआ वह {भक्त} उस {कुरी के ब्राह्मण सो देव} की आराधना
{सेवाभाव} चाहता है और निःसन्देह उस {ब्राह्मणदेव} से मेरे द्वारा ही {पु. संगम की }
{मानसी सृष्टि में} निर्मित उन कामनाओं को {जो मन में सोचता है, वही चतुर्युगी में} पाता है।

अध्याय 7, श्लोक 23

अन्तवत् तु फलं तेषां तत् भवति अल्पमेधसां।
देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मां अपि ।। 7/23

  अर्थात-उन अल्पबुद्धि लोगों का तो वह {मनमाना} फल {संगमी शूटिंग प्रमाण अल्पकालीन} विनाशी {ही} होता है; {क्योंकि} देवयाजी {मुझे न पाकर नं. वार बने} देवात्माओं को पाते हैं {और} मेरे भक्त मुझ {सर्वोत्तम शिवसमान बने हीरो पार्टधारी महादेव } को ही पाते हैं।

अध्याय 7, श्लोक 24

अव्यक्तं व्यक्ति आपन्नं मन्यन्ते मां अबुद्धयः।
परं भावं अजानन्तः मम अव्ययं अनुत्तमं ।। 7/24

  अर्थात-बेसमझ लोग मुझ अव्यक्त {शिव} को व्यक्त {अस्थाई रथ चतुर्मुखी ब्रह्मा या संदेशी} में आया हुआ मानते हैं {और} मेरे {84 के चक्र में सदा ऑलराउंडर} अविनाशी परंब्रह्म के सर्वोत्तम {सहनशील मातृ} भाव को नहीं ‘पहचान पाते। {अत: द्वापरयुग से पराधीन ही रहते हैं।} {निराकारी चेहरे के बुद्ध-क्राइस्टादि को ही न पहचानने कारण धर्म के धक्के खिलाते हैं, तो अविनाशी सत्य सनातन सद्धर्म के धर्मस्थापक ‘अल्लाह अव्वल दीन’ सुप्रीम शिव को योगेश्वर सनत्कुमार में आदिदेव को कैसे पहचानेंगे? छुपा रुस्तम तो बाद में ही खुलेगा ना! बाप गुप्त तो पण्डा रूप पांडु के पुत्र पाण्डव भी गुप्त । }

अध्याय 7, श्लोक 25

न अहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढः अयं न अभिजानाति लोको मां अजं अव्ययं ।।7/25

   अर्थात-योगमाया से ढका हुआ मैं {शिवज्योति समान बना शिव + बाबा } सब {मानवीय आत्माओं के लिए प्रगट नहीं हूँ। यह {शास्त्रों की सुनी-सुनाई बातों (गीता 2-53) से} मूर्ख बना यह संसार मुझ अजन्मा {दिव्यजन्मा, } अविनाशी {शिवसमान बने बाबा विश्वनाथ} को नहीं जान पाता।

अध्याय 7, श्लोक 26

वेद अहं समतीतानि वर्तमानानि च अर्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।। 7/26

   अर्थात-हे अर्जुन! मैं {अजन्मा होने से अखूट ज्ञान-भंडार सदाशिव } सम्पूर्ण भूतकालीन और वर्तमान वा भविष्यगत प्राणियों को {बुद्धिमानों की बुद्धि होने से} जानता हूँ; किन्तु मुझ {निराकारी+साकारी अव्यक्तमूर्ति हीरो शंकर महादेव} को कोई नहीं जानता। {गीता 7/25} {मनसस्तु परा बुद्धि परतस्तु स: (गीता 3-42) ।। यानी बुद्धि रूप त्रिनेत्री शंकर से भी परे सदाशिव ज्योति शिव है।

अध्याय 7, श्लोक 27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।। 7/27

  अर्थात-परंतप भारत इच्छाद्वेषसमुत्थेन हे शत्रुतापक! हे भरतवंशी! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए,{क्षणै-2 परिवर्तनीय } द्वन्द्वमोहेन सर्गे सर्वभूतानि {सुख-दुःखादि} द्वन्द्वों के मोह से कल्पांतकाल कि घोर कलियुगान्त} में सब प्राणी सम्मोहं यान्ति {द्वैतवादी द्वापुरयुग से विदेशी या विधर्मी धर्मपिताओं से प्रभावित होकर} सम्पूर्ण मूढ़ता को पहुँच जाते हैं।

अध्याय 7, श्लोक 28

येषां तु अन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणां ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 7/28

   अर्थात-परंतु {मेरी अव्यभिचारी याद से} जिन पुण्यकर्मी {ब्राह्मण-} जनों के पाप- {भंडार} का {पूरा} अंत हुआ है, वे {सुख-दुःखादि) द्वन्द्वों के मोह से {पु. संगम के जन्म में} विमुक्त हुए {धर्मानुकूल कर्मयोगी बनकर ब्रह्मचर्य में} दृढ़व्रत वाले मुझ {शिवबाबा} को {ही} याद करते हैं।

अध्याय 7, श्लोक 29

जरामरणमोक्षाय मां आश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तत् विदुः कृत्स्नं अध्यात्मं कर्म च अखिलं ।। 7/29

  अर्थात-जो जरा-मरण {आदि दुखों से} मुक्ति-अर्थ {एकमात्र} मेरा आसरा लेकर {पुरुषार्थ का} प्रयत्न करते हैं, वे उस परंब्रह्म, सम्पूर्ण {ऑलराउंड हीरो महादेव} {रूप} में 84 के पार्टधारी रिकॉर्ड को और सारे {अच्छे-बुरे} कर्मों को जान जाते हैं।

अध्याय 7, श्लोक 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकाले अपि च मां ते विदुः युक्तचेतसः। 7/30

  अर्थात-{सृष्टि के आदि पु. संगमयुग में} जो देवताओं के अधिष्ठाता मुझ {सदाशिव समान महादेव} को, {सभी} प्राणियों के अधिपति {भूतनाथ} सहित और {रूद्र-} ज्ञानयज्ञाधिपति शिवबाबा सहित {अखूट ज्ञान भंडारी, अव्यक्त-अभोक्ता शिव को} जानते हैं, वे योगयुक्त मन-बुद्धि वाले भी {जड़ चेतन के} प्रयाणकाल में मुझ {परम+आत्मरूप सदाशिव ज्योति} को ही जान जाते हैं।

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