लक्ष्मी -नारायण | एडवांस कोर्स | 7 Day course |आध्यात्मिक ज्ञान

लक्ष्मी -नारायण | एडवांस कोर्स | 7 Day course |आध्यात्मिक ज्ञान

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  • 8 August 2023
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चित्र का परिचय

लक्ष्मी-नारायण चित्र का परिचय

     दिव्य साक्षात्कार के आधार से बनवाये गये 4 मुख्य चित्रों में से यह ल.ना. का पुराना चित्र भी बाबा के समय में बनाया गया है। इसका प्रमाण यह है कि साक्षात्कार से जो मुख्य चार चित्र बनाये गये हैं उनमें पहले वाले पुराने दो चित्रों त्रिमूर्ति और कल्पवृक्ष में सिर्फ ब्रहमाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय लिखा है और सन् 1965/66 में बने दो चित्रों-लक्ष्मी-नारायण व सीढ़ी में ‘प्रजापिता’ शब्द एड कर दिया गया है। क्योंकि बाबा ने मुरली में कहा है- ब्रह्माकुमारियों के आगे प्रजापिता अक्षर जरूर लिखना है। प्रजापिता कहने से बाप सिद्ध हो जाता है। (मु. 7.9.77 पृ.2 आदि) मुरलियों के महावाक्यों से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है कि हम ब्राह्मण सिर्फ ब्रह्मा माँ के ही बच्चे नहीं है, बल्कि हमारा बाप भी है- प्रजापिता हम माता-पिता दोनों की संतान हैं। इस चित्र का साइज है- 30×40″ रु.ना. के चित्रका करते हुए बाबा ने मुरली में कहा है- “लक्ष्मी-नारायण का चित्र बहुत अच्छा है। इनमें सारा सेट है। त्रिमूर्ति भी, लक्ष्मी-नारायण भी, राधे-कृष्ण भी हैं। यह चित्र भी कोई रोज़ देखता रहे तो याद रहे शिवबाबा ब्रह्मा द्वारा हमको यह बना रहे हैं।” (मु. 7.8.65 पृ.2 अंत) ●“अपना एम ऑब्जेक्ट देखने से ही रिफ्रेशमेंट आ जाती है, → इसलिए बाबा कहते हैं कि यह लक्ष्मी-नारायण का चित्र हरेक के पास होना चाहिए। यह चित्र दिल में प्यार बढ़ाता है।” (मु. 11.1.66 पृ.3 आदि) ●“सभी के पर में यह ल. ना. का चित्र जरूर होना चाहिए। कितना एक्युरेट चित्र है। इनको याद करेंगे तो बाबा याद आवेगा। बाबा को याद करो तो यह याद आवेगा।” (मु. 1.1.69 पृ.3 आदि) ●“बाबा कहते हैं जब भी फुर्सत मिले तो ल.ना. के चित्र सामने आकर बैठो। रात को भी यहाँ आकर सो सकते हो इन ल. ना. को देखते-2 सो जाओ।” (मु. 20.1.74 पृ.2 अंत)

ल.ना. और राधा-कृष्ण में संबंध

     लक्ष्मी-नारायण के चित्र में साधारणतया यह समझानी दी जाती थी कि राधा- कृष्ण ही बड़े होकर ल. ना. बनेंगे। जबकि इस चित्र में जो चित्रण है उसका अर्थ यह नहीं निकलता है कि राधा-कृष्ण बड़े होकर ये ल. ना. बनेंगे, बल्कि इस चित्र का सही अर्थ यह निकलता है कि जो बीच में छपे हुए ल.ना. है और रा.कृ. का जो चित्र नीचे दिया हुआ है इनका रचयिता और रचना का सम्बन्ध है। ल.ना. रचयिता ऊपर बीच में खड़े हुए दिखाये गए हैं। रचयिता माना माँ-बाप और रा.फू. बच्चे, इनकी रचना जो सतयुग में जन्म लेंगे वो नीचे दिखाए गए हैं। बाचा मुरली में अक्सर प्रश्न भी पूछते ● ल.ना. का रा.कृ. से क्या सम्बन्ध है?” “राधे-कृष्ण साथ फिर ल.ना. का क्या संबंध है, यह बाप ही आकर समझाते हैं। (मु. 29.4.71 पृ.1 मध्य) • कृष्ण का तो जब स्वयंवर होता है, नाम ही बदल जाता है। हो, ऐसे कहेंगे लक्ष्मी-नारायण के बच्चे थे। राधे-कृष्ण ही स्वयंवर बाद लक्ष्मी-नारायण बनते हैं। तब एक बच्चा होता है। फिर उनकी हिनायस्टी चलती है। (मु. 16.8.70 पृ.1 मध्य) जब बाबा मुरली में कहीं-2 सम्बन्ध पूछते हैं तो इससे साबित होता है कि ये रा. कृ. और ल.ना. दी रोम सोल्स तो नहीं हैं। सम्बंध है तो जरूर वो आत्माएँ कोई सम्बंध में जुड़ी हुई है। माँ-बाप का और बच्चे का सम्बन्ध है। “ल.ना. के चित्र के साथ राधे-कृष्ण भी हो तो समझाने में सहज होगा। यह है करेक्ट चित्र। इसकी लिखत भी बड़ी अच्छी है।” (मु. 2.1.73 पृ.3 अंत) –“ल.ना. के फीचर्स बदलने नहीं चाहिए। नहीं तो कहेंगे इतने होते है क्या फीचर्स एक ही होनी चाहिए।” (मु. 24.2.73 पृ.3 मध्य )

 

स्वर्ग के रचयिता और उनकी देवी रचना 

     इस चित्र में तो यह बात बिल्कुल क्लीयर है। सबसे उपर हेडिंग भी दिया हुआ है- स्वर्ग के रचयिता और उनकी देवी रचना”। यहाँ ध्यान से देखेंगे तो पता कि ‘के रचयिता’ यह बहुवचन में है। ‘स्वर्ग का रचयिता’ नहीं लिखा है। अगर स्वर्ग का रचयिता लिखा होता तो रचयिता एक हो सकता था; लेकिन यहाँ लिखा है- ‘स्वर्ग के रचयिता क्योंकि सृष्टि परिक्रिया के लिए रचना रचने वाले दो चाहिए। बच्चों की रचना दो के बगैर नहीं हो सकती। इसलिए यहाँ लिखा हुआ है- स्वर्ग के रचयिता। ऐसे नहीं कि शिवज्योतिबिंदु से कोई रचना पैदा हो जाएगी। शिवज्योतिबिंदु तो निराकार आत्मा का नाम है। वो तो एक है; लेकिन निराकार से तो निराकारी वर्सा मिलेगा। तब ही बाबा ने मुरली में प्रश्न किया है- “निराकार से क्या निराकारी वर्सा चाहिए?” (मु. 7.10.73 पृ. 4 मध्यांत) क्योंकि निराकार की रचना भी होने का सवाल नहीं है; क्योंकि निराकार आत्मा तो अनादि अविनाशी है तो उसको रचे जाने का सवाल नहीं है। रथी वो चीज़ जाती है जो पहले न हो। रचयिता भी साकार चाहिए, रचन भी साकार चाहिए। क्रियेटर और क्रियेशन दोनों ही साकार में होने चाहिए। इसलिए यहाँ लिखा हुआ है- स्वर्ग के रचयिता अर्थात् ल.ना. और आगे लिखा है- और उनकी देवी रचना, जो स्वर्ग के रचने वाले ल. ना. बहुवचन में बताए गए, उनकी देवी रचना। देवी रचना माना देवताई रचना। उनके जो बच्चे पैदा होंगे वो देवता होंगे। अगर शिव की देवी रचना कहें तो शिव तो भगवान है। भगवान से तो भगवान भगवती की पैदाइश होगी या देवताओं की पैदाइश होगी? देवताओं से देवताओं की पैदाइश होती है और भगवान से भगवान भगवती बनेंगे। इसलिए बाबा ने मुरली में कहा है- • ल.ना. को गॉड-गडिज़ कहते हैं अर्थात् गॉड द्वारा यह पर्सा पाया है।” (मु. 7.2.76 पृ.1 मध्यांत) “इन ल.ना. को निराकार ने ऐसा बनाया।” (मु. 24.5.64. पृ.2 अंत) •”कहते हैं ना कि गॉड-गडिज का राज्य था। भगवती श्री लक्ष्मी, भरवान श्री नारायण का राज्य कहा जाता है। थे तो अब कहाँ गए?… अभी भी वह भिन्न नाम-रूप में यहाँ है यह राज सभी अभी तुम जानते हो। यह बातें समझने से बच्च को खुशी होनी चाहिए कि बाप हमको पढ़ा ऐसा बना रहे हैं। नम्बरवन हीरो हीरोइन यह है।” (भु. 9.12.71 पृ.1 मध्यांत)

     भगवान भगवती का टाइटिल संगमयुगी ल.ना. का है जिन्हें नारी से लक्ष्मी और नर से नारायण अर्थात् नर-नारायण कहा जाता है। सतयुग में जो देवता के रूप में बच्चे पैदा होंगे वो भगवान भगवती नहीं कहे जाएँगे क्योंकि भगवान भगवती यो तो टाइटिल है सब धर्मवालों के लिए। बाबा ने मुरली में कहा है-“यह ल. ना. चैतन्य में थे तो सुख ही सुख था। सब धर्म वाले इनको पूजते, गार्डन ऑफ अहा कहते हैं।” (मु. 2.10.70 पृ.3 मध्य) वो तो सारे विश्व के माता-पिता हैं। कोई उनको मात पिता माने या न माने ‘स्वर्ग के रचयिता और उनकी देवी रचना व ग ही इस बात को साबित करता है कि रचयिता पहले होना चाहिए और रचना बाद में होनी चाहिए। यह सारा ही चित्र रचयिता के बाद रचना के क्रम से बना हुआ है। इसलिए बाबा ने मुरली में कहा है- “पहले है परमपिता परमात्मा रचयिता।” (मु. 20.10.73 पृ.1 मध्य) यह जो बीच में लना का चित्र है यह संगमयुगी ल. ना. का चित्र है। जब संगमयुग पूरा होना होगा तो राधा कृष्ण का भी बच्चों के रूप में जन्म होगा, वो उनकी रचना हैं।

सतयुगी देवी स्वराज्य आपका ईश्वरीय जन्मसिद्ध अधिकार है।

      •“जैसे त्रिमूर्ति का चित्र है, नीचे लिखते हैं देवी स्वराज्य जन्मसिद्ध अधिकार है। (मु. 19.3.75 पृ.1 आदि) त्रिमूर्ति के चित्र के नीचे जो हेडिंग दिया हुआ है उसमें लिखा है कि ‘सतयुगी देवी स्वराज्य आपका ईश्वरीय जन्मसिद्ध अधिकार हैं। ल.ना. के ताज के ऊपर ऐसा लिखा हुआ है। इस वाक्य से भी यह क्लीयर हो जाता है कि सतयुगी देवी स्वराज्य जो जन्मसिद्ध अधिकार बताया है, वो जन्मसिद्ध अधिकार किसका है? ब्राह्मणों का न! और ब्राह्मण किसकी संतान हैं? ब्रह्मा की संतान कब होते हैं? संगमयुग में संगमयुग में जो ब्राह्मण हैं वो ईश्वरीय जन्मसिद्ध अधिकार लेते हैं। ईश्वर से जो जन्म मिला है उससे सिद्ध होने वाला अधिकार। जैसे- लखपति- करोड़पति का बच्चा पैदा होता है तो करोड़पति बाप का जन्मसिद्ध अधिकार बच्चा ही लेता है; क्योंकि उसके जन्म लेने से ही सिद्ध है कि करोड़ों के ऊपर उसका अधिकार है। ऐसे ही ईश्वरीय जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि ईश्वर से जिन ब्राह्मणों ने जन्म लिया उनका जन्म लेने से ही वो सतयुगी बर्से का अधिकार सिद्ध हो जाता है। बो अधिकार इसी जन्म में मिलना चाहिए या अगले जन्म में मिलना चाहिए? इसी जन्म में मिलना चाहिए न; क्योंकि ब्राह्मण जन्म जब यहाँ है तो जन्मसिद्ध अधिकार भी यहीं होना चाहिए, कि अगले जन्म में मिलेगा ? क्योंकि बाबा ने मुरली में कहा है- “ब्राह्मण भी यहाँ बनना है। देवता भी यहाँ ही बनायेंगे।” (मु. 27.2.76 पृ.3 अंत) यह वाक्य भी इस बात को साबित करता है कि कोई ऐसे ब्राह्मण बच्चे भी हैं जो परमात्मा बाप से सतयुगी दैवी स्वराज्य का वर्सा, सतयुगी दैवी स्वराज्य की राजधानी का वर्सा इसी जन्म में, इसी शरीर से प्राप्त करते हैं। • जब जन्मसिद्ध अधिकार है तो जन्म लेने से ही प्राप्त है तब अधिकारी तो बन ही गए ना। (अ.वा.29.1.75 पृ.30 अंत) इसलिए बाबा ने मुरली में कहा है- “बाप स्वर्ग का रचयिता है तो ज़रूर स्वर्ग का वरसा ही देगा और देंगे भी ज़रूर नर्क में।” (मु. 8.6.68 पृ.1 आदि) इसी जन्म में यदि 16 कला सम्पूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति न हो तो ईश्वरीय पढ़ाई अथवा योगबल की महिमा कैसे होगी? क्योंकि मुरली में बाबा ने कहा है- “तुम बच्चों को सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण यहाँ (संगमयुग पर) बनना है।” (मु. 25.3.74 पृ.1 अंत) गीता में भी आया है-

                   शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोमनात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः || 5/23

इस लोक में ही जो पुरुष शरीर छूटने से पहले काम-क्रोध से उत्पन्न हुए आवेग को सहन कर सकता है, वह मनुष्य योगी है, वही सुखी है।

ल.ना. प्रकाश के वलय में और रा. कृ. सतयुगी दुनिया में

     अगला प्वाइन्ट इस चित्र में है कि ल. ना. के चारों तरफ जो प्रकाश का ब दिखाया है, यह प्रकाश का वलय कोई देवताओं की पवित्रता का वलय नहीं दिखाया है। पवित्रता का जो वलय दिखाया जाता है वो तो सर के आस-पास दिखाया जाता है। सारे शरीर के आस-पास नहीं दिखाया जाता। यहाँ तो ल.ना. को एकदम प्रकाश की दुनिया के अंदर दिखाया गया है और रा.कृ. को नीचे की ओर फूल-पत्तियों बाली स्वर्गीय दुनिया में दिखाया गया है। चित्रकार ने इस बात को चित्रित करावा है। साक्षात्कार के द्वारा बाबा ने चित्र में यह चित्रण दे दिया कि रा.कृ. हैं सतयुग की प्राकृतिक सौंदर्य वाली दुनिया में और ल. ना. ज्ञान का प्रकाश जिस दुनिया में है उस संगमयुगी दुनिया में हैं। गीता में भी आया है-

  किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । 

                 पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कयुतिमप्रमेयम् ॥ 11/17 

    आप पवित्रता की जिम्मेवारी के ताज अर्थात् मुकुटधारी, दृढ़ता रूपी गदाधारी, 84 जन्मों के ज्ञान चक्रधारी और योग रूपी तेज के पुंज रूप चारों ओर से प्रकाशमान हैं चारों ओर से कठिनाई से देखने योग्य, दैदीप्यमान अनि और सूर्य की प्रभा वाले, उपमाहीन आपको मैं देख रहा हूँ।

     इनको ज्ञान के प्रकाश के वलव से चारों तरफ घेरा (हुआ) दिखाया गया है। इनको स्वर्गीय दुनिया के बीच में नहीं दिखाया गया है। इससे भी साबित हो जाता है कि ये ल.ना. संगमयुगी दुनिया से कनेक्टेड हैं। सतयुगी दुनिया से उतने कनेक्टेड नहीं हैं। इन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल से, ज्ञान के बल से (यह) राजाई प्राप्त की (है)। ये विश्व के महाराजन बनते हैं। इसलिए सर से लेकर पैरों तक का जो इनका चारों तरफ प्रकाश का वलय है वो यह साबित करता है कि वे संगमयुगी प्रकाश की दुनिया के बीच में रहने वाली आत्माएँ हैं। जबकि इनके बच्चे रा.कृ. सतयुगी प्राकृतिक सौंदर्य के बीच में रहने वाली आत्माएँ हैं।

ल.ना. का श्रृंगार

लक्ष्मी नारायण का श्रृंगार

     चित्र से एक और प्वाइंट निकलता है। कोई यह कहे कि चित्र में इन ल. ना. को इतना ताम-झाम क्यों दिखाया है? संगमयुग में ऐसे ताम-झाम पहनकर बैठेंगे क्या ? संगमयुग में ये ताम-झाम पहनकर बैठने की बात नहीं है। चित्रकार अंदरुनी सूक्ष्म बात को स्थूल बात से ही चित्रण करेगा। जैसे शंकर को नंगा दिखाया जाता है तो चित्रकार यह अर्थ बताना चाहता है कि इनकी निराकारी स्टेज है। ब्रह्मा को कपड़े पहनाए गए हैं तो इससे यह बताया गया है कि इनकी साकारी स्टेज है, शरीर रूपी वस्त्र का भान है। ऐसे ही ल.ना. के चित्र में ये जो लक्ष्मी और नारायण को अनेक प्रकार के अलंकार दिखाएं गए हैं, वस्त्राभूषण दिखाए गए हैं वो वास्तव में दिव्य गुणों का शृंगार दिखाया गया है। ये अंदरूनी चीज़ है जो चित्र में कैसे चित्रित की जाए! इसलिए इन दिव्य गुणों के स्थूल शृंगार से सूक्ष्म शृंगार की बात प्रत्यक्ष की गई है। बाकी संगमयुग में ऐसा शृंगारा हुआ स्थूल रूप नहीं होता। ये तो दिव्य गुणों का, दिव्य शक्तियों का श्रृंगार है :-

बिंदी मुख्य शृंगार कौनसा होता है ? बिन्दी लगाते हैं वो है सबसे मुख्य शृंगार । स्थूल बिन्दी की तो बात नहीं, आत्मा रूपी बिन्दी है। देहाभिमान रूपी जो गधा बैठा रहता है वो हटाके आत्माभिमान की बिन्दी हमेशा लगी रहे। • “लाल टीका है सूरत की शोभा । चन्दन है आत्मा की शोभा।” (पुरानी अ.वा.6.7.69 पृ.82 अंत) चंदन समान खुशबू फैलाने वाली चंदन की बिंदी “मस्तक में यह स्मृति धारण करो कि मैं आनन्द स्वरूप हूँ- यह मस्तक की बिन्दी हो गई।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 मध्य)

ताज – • “इतनी ज़िम्मेवारी के अधिकारी समझ करके चलो। स्व-परिवर्तन, विश्व परिवर्तन दोनों के जिम्मेवारी के ताजधारी सो विश्व के राज्य के ताज अधिकारी होंगे। संगमयुगी ताजधारी सो भविष्य ताजधारी वर्तमान नहीं तो भविष्य नहीं । वर्तमान ही भविष्य का आधार है। चेक करो और नॉलेज के दर्पण में दोनों स्वरूप देखो – संगमयुगी ब्राह्मण और भविष्य देवपदधारी । दोनों रूप देखो और फिर दोनों में चेक करो- ब्राह्मण जीवन में डबल ताज है वा सिंगल ताज है? एक है पवित्रता का ताज, दूसरा है प्रैक्टिकल जीवन में पढ़ाई और सेवा का दोनों ताज समान हैं? सम्पूर्ण हैं वा कुछ कम हैं? अगर यहाँ कोई भी ताज अधूरा है, चाहे पवित्रता का, चाहे पढ़ाई वा सेवा का, तो वहाँ भी छोटे से ताज अधिकारी या एक ताजधारी अर्थात् प्रजा पद वाले बनना पड़ेगा; क्योंकि प्रजा को भी लाइट का ताज तो होगा अर्थात् पवित्र आत्माएँ होंगी लेकिन जिन या विश्वमहाराज का ताज नहीं प्राप्त होगा। महाराजन्, कोई राजन अर्थात् राजा, महाराजा और विश्व महाराजा, इसी आधार पर नम्बरवार ताजधारी होंगे।” (अ.वा. 12.10.81 पृ.1 मध्य)

     “ताज है जिम्मेवारी का स्वयं की जिम्मेवारी और विश्व की जिम्मेवारी।” (अ.वा. 11.7.74 पृ.102 अंत) • “जितना बड़ा ज़िम्मेवारी का ताज उतना ही सतयुग में भी बड़ा ताज मिलेगा।” (अ.वा. 11.7.70 पृ.289 अंत) • “बाबा ने यह भी समझाया है डबल सिरताज यह सिर्फ नाम है। बाकी लाइट का ताज वहाँ कोई रहता नहीं है। यह तो पवित्रता की निशानी है।” (मु. 9.11.69 पृ.2 अंत) • “कभी स्वप्न में भी अपवित्रता के संकल्प नहीं आये इसको कहा जाता है प्योरिटी की पर्सनैलिटी वाले।” (अ.वा. 6.1.79 पृ.191 आदि) • “भविष्य का ताज और तख्त इस ताज और तख्त के आगे कुछ भी नहीं है।” (अ.वा. 6.6.73 पृ.87 मध्यांत) तख्त को तो जानते हो बाप के दिलतख्तनशीन। लेकिन यह दिल तख्त इतना प्योर है जो इस तख्त पर सदा बैठ भी वही सकते जो सदा प्योर हैं। बाप तख्त से उतारते नहीं; लेकिन स्वयं उत्तर जाते हैं।” (अ.वा. 12.12.79 पृ.107 मध्य)

चिंदीबापदादा सभी को विशेष एक गिफ्ट दे रहे हैं। कौन सी? विशेष एक श्रृंगार दे रहे हैं। वह है सदा “शुभ चिंतक की चिंदी”। ताज के साथ-साथ यह चिन्दी ज़रूर होती है। जैसे आत्मा बिन्दी चमक रही है ऐसे मस्तक के बीच यह चिन्दी की मणी भी चमक रही है।” (अ. वाणी. 19.3.81 पृ.1 अंत) •लाल टीका है। सूरत की शोभा चन्दन है आत्मा की शोभा]” (अ.वा. 6.7.69 पृ.82 अंत) चंदन समान खुशबू फैलाने वाली चंदन की बिंदी । • “मस्तक में यह स्मृति धारण करो कि मैं आनन्द स्वरूप हूँ- यह मस्तक की चिन्दी हो गई।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 मध्य)

तिलक – • “जैसे मस्तक में तिलक चमकता है वैसे भाई-2 की स्मृति अर्थात् आत्मिक स्मृति की निशानी मस्तक बीच बिन्दी चमक रही थी।” (अ.वा. 23.3.81 पृ.86 आदि) • अमृतवेले सदा अपने मस्तक में विजय का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक लगाओ। ….सुहाग की निशानी भी तिलक है।” (अ.वा. 21.11.92 पृ.86 आदि) •‘“अचल रहने का साधन है- अमृतवेले सदा तीन बिंदियों का तिलक लगाओ। आप भी बिंदी, बाप भी बिंदी और जो हो गया, जो हो रहा है, नथिंग न्यू तो फुलस्टॉप भी बिंदी!” (अ.वा.9.1.93 पृ.165 अंत)

     बाबा ने बोला है- “बाबा कहते हैं तुमको राजतिलक दे रहा हूँ। मैं स्वर्ग का रचयिता तुमको राजतिलक न दूंगा तो कौन देगा? कहते हैं ना तुलसीदास चन्दन पिते….. यह बात यहाँ की है। वास्तव में राम शिवबाबा है।” (मु. 5.3.73 पृ.3 आदि) मैं ही तो आकर के दूंगा। कोई और थोड़े ही देगा। राम वाली आत्मा ही वास्तव में तुलसीदास का पार्ट बजाने वाली हुई; क्योंकि तुलसीदास वाली आत्मा ने ज्ञान का चंदन घिसा और रघुवीर माना परमपिता शिव ने आकर के उसको स्मृति का तिलक 1976 में लगा दिया कि तुम ही राम वाली आत्मा हो। तुम ही जा करके नारायण बनने वाली आत्मा हो। तो राम की आत्मा को ये टचिंग दे दी। “तख़्त को तो जानते हो-बाप के दिल तख्त नशीन। लेकिन यह दिल तख़्त इतना प्योर है जो इस तख्त पर बैठ भी वही सकते जो सदा प्योर हैं। बाप तख्त से उतारते नहीं बच्चे स्वतः ही उतर जाते हैं।” (अ.वा.12.12.79 पृ.679 अंत) • “भविष्य का ताज और तख़्त इस ताज और तख्त के आगे कुछ भी नहीं है।” (अ.वा. 6.6.73 पृ.87 मध्यांत) दिल की सफाई इसमें बहुत चाहिए तब तो उंच पद पायेंगे। उनकी बुद्धि में बहुत सफाई रहती है, जैसे इन लक्ष्मी-नारायण की आत्मा में सफाई रहती है ना, तब तो ऊंच पद पाया है।

 नयनों की चमक-नयनों में कहानियत की चमक, रुहानी नज़र जिस्म – को देखते हुए न देख कहाँ को देखने के अभ्यास की चमक थी। कहानी प्रेम की झलक थी।” (अ.वा. 23.3.81 पृ.86 आदि) “दिव्य नयनों द्वारा अर्थात् दृष्टि द्वारा शान्ति की शक्ति, प्रेम की शक्ति, सुख वा आनन्द की शक्ति सब प्राप्त होती है।” (अ.वा. 11.11.89 पृ.15 आदि, 18मध्यांत)

काजल – शरीर में सबसे जास्ती आकर्षण वाला अंग आँखें हैं और सबसे धोखा देने वाला अंग भी आँखें हैं। बाबा ने मुरली में बोला है- 10, 20, 50 भूलें तो रोज ही करते होंगे। आँखों की भूलें होती हैं कि नहीं होती हैं? आँखें व्यभिचारी बनती हैं कि नहीं बनती हैं? तो बताया है कि पुरुषार्थी जीवन में इस आँख को कालीमा से बचाना है। पुरुषार्थी जीवन की बात है। सदा रूहानियत व भाई भाई की स्मृति का नयनों में काजल हो ।

 नथनी- फुल कंट्रोल में लाने के लिए नाथ डाली जाती है। ऐसे ही कलियुग में – जो स्त्रियाँ हैं, वो ज्यादातर स्त्रियाँ पति के कंट्रोल में नहीं रहती हैं। डायवोर्स ज़्यादा देती हैं, दूसरे 2 खसम ज्यादा कर लेती हैं। दृष्टि वृत्ति चंचल होती है। मुरली में बोला है- अपनी पत्नी को अपने कंट्रोल में रखना चाहिए। • ऐसे बहुत पुरुष आते हैं जिनकी स्त्रियाँ नहीं आती हैं। मानती ही नहीं हैं। लिखते हैं कि बाबा हमारी स्त्री तो शूर्पनखा, पूतना है। बहुत तंग करती है। क्या करूँ। बाबा तो लिखते हैं। तुम तो कोई कमजोर हो। उनको समझाओ। तुमने तो प्रतिज्ञा की थी कि आज्ञा मानेंगी। तुम अपनी स्त्री को ही वश नहीं कर सकते हो तो विकारों को कैसे वश करेंगे। तुम्हारा फर्ज़ है स्त्री को अपने हाथ में रखना। प्यार से समझाना। (मु. 24.4.72 पृ.2 आदि) ये मुरली में ही बोल दिया है। ये कंट्रोल में रखने की यादगार है नथनिया, जो आज भी भक्तिमार्ग में मातायें पहनती है। सदा एक बाप दूसरा न कोई इसी स्मृति की नाक में नथनी डालनी है। लक्ष्मी को नथनी नहीं दिखाई है; क्योंकि वो तो संपन्न रूप है। संगमयुगी पुरुषार्थी जीवन में नाथ डाली जाती है, संपन्न रूप में नाथ नहीं डाली जाती। लाली – • “होंठों पर प्रभु प्राप्ति आत्मा और परमात्मा के महान मिलन की और सर्व प्राप्तियों की मुस्कान…। चेहरे पर मात-पिता और श्रेष्ठ परिवार से बिछुड़े हुए कल्प बाद मिलने के सुख की लाली…।” (अ.वा. 23.3.81 पृ.86 आदि)

 हर्षितमुख-  “नर और नारी दोनों ही जो ज्ञान को सिमरण करते हैं वह ऐसे हर्षित रहते हैं। तो हर्षित रहने का साधन क्या हुआ? ज्ञान का सिमरण करना। जो जितना ज्ञान को सिमरण करते हैं यह उतना ही हर्षित रहते हैं।” (अ.वा. 16.6,72 पृ.309 अंत) • “आवाज़ से हँसना न है। ल.ना. को हर्षितमुख कहा जाता है। हर्षितमुख रहना और हँसना अलग बात है। हर्षित मुख रहने से वह गुप्त खुशी रहती है। आवाज़ से हँसना बुरी बात है। हर्षित रहना सभी से अच्छा है। खिल-2 करना भी विकार है।” (मु. 8.9.73 पृ.3 अंत)

 चेहरे की चमक– सूरत में बापदादा की सीरत का साक्षात्कार कराने वाली रूहानी चमक।

 कुण्डल- सदा तुम्हीं से सुनूँ, तुम्हारा ही सुनूँ- इस प्रतिज्ञा में कानों में कुण्डल दिखाये गए हैं। मुरली में भी है- “कानों द्वारा भी आनन्द स्वरूप बनने की बातें सुनते रहना, यह कानों का शृंगार है।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 अंत) माला – • “मुख द्वारा अर्थात् गले में भी आनन्द दिलाने की बातें हों- यह गले की माला हो गई।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 मध्य) बाजू बंद – सदा सर्व के व बाप के मददगार वा अथक सेवाधारी रहने का बाजूबंद । ईश्वरीय सेवा के बंधन में बाजू बंधे हुए हैं, इसकी यादगार है बाजूबंद ।

करधनी- जितने भी शृंगार करने के गहने होते हैं, उन गहनों में सबसे भारी और मजबूत गहना करधनी ही तो होती है। करधनी कमर को बाँधते हैं। बाँधने का मतलब कंट्रोल करना। तो स्वर्ग लाने का काम कन्याएँ-माताएँ करेंगी या भाई लोग करेंगे? तो कन्याओं को करधनी बाँधनी है। करधनी बाँधना माना कमर की इंद्रियों में इतनी प्योरिटी होनी चाहिए कि कोई भी पुरुष हाथ ना लगा पाए ।

कंगन- पवित्रता की प्रतिज्ञा के हाथों में दृढ निश्चय रूपी कंगन । बाबा ने ये भी कहा है- • “हाथों द्वारा अर्थात् कर्म में भी आनन्द स्वरूप की स्थिति हो ये हाथों के कंगन हो गए।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 मध्य)

अंगूठी- दस अंगुलियाँ हैं। उसमें भी राइट हैण्ड की उंगलियाँ अच्छा काम करती हैं और वो भी नम्बरवार करती हैं। तो जरूर दस उंगलियों में कोई उंगलियाँ नम्बरवार ज्यादा काम करने वाली हैं कोई कम काम करने वाली हैं। उनमें से जो लेफ्ट हैण्ड की दसवीं उंगली है, वो उतना काम की नहीं है। तो जो नौ उंगलियाँ हैं, वो नौ रत्नों की यादगार हैं। उंगलियों में वो रतन पहने जाते हैं। अंगूठी पहनने का मतलब क्या हुआ? (किसी ने कहा- वरण करना) हाँ। उन नौ रत्नों के गुणों को धारण करना। उनमें सबसे अच्छा रतन होता है- हीरा । हीरा माने हीरो पार्टधारी। जो हीरोपार्टचारी है, उसके गुणों को याद करना, धारण करना यही है अंगूठी पहनना। तो ये गुणों की खान दिखाई गई है जो उंगलियों में धारण करते हैं।

 पायल- पायल आवाज करती है। पायल बजती है। वो बताते हैं कि राइट करने जा रहे हैं या राँग करने जा रहे हैं! जब चाल चलते हैं तब पायल बजती है। खड़े-2 हैं तब नहीं बजती। तो ये जीवन में ऐसी2 चाल चलते हैं। वो पायल बताती है ये कैसी चाल चलते हैं। बजकर के चाल का पता लग जाता है। डान्स करती है कि धीरे-2 बजती है कि ताल से बजती है सब बताती है। पायल यादगार है चाल की।

    खुशियों में सदा नाचते रहने की निशानी घुंघरू वा पायल । ज्ञान डान्स करते हैं। निर्भयता के घुंघरू, महाकाली जब विनाश करती है तो उसके पैरों में निर्भयता के घुंघरू रहते हैं।• “शक्तियों के अलंकार, और शक्तियों की ललकार और शक्तियों के किस कार्य का गायन है। घुंगरू डालकर असुरों के ऊपर नाचना है। नाचने से क्या होता है? जो भी चीज़ होगी वह दबकर ख़त्म हो जावेगी। निर्भयता और विनाश की निशानी यह घुंगरू की झंकार है।” (अ.वा. 4.11.76 पृ.2) शक्तियों का या गोपिकाओं का यादगार है, खुशी में नाचना । पाँव में घुंघरू डालकर नाचते हुए दिखाते हैं। जो सदा खुशी में रहते उनके लिए कहते- खुशी में नाच रहा है। नाचते हैं तो पांव ऊपर रखते हैं। ऐसे ही जो खुशी में नाचने वाले होंगे उनकी बुद्धि ऊपर रहेगी । देह की दुनिया व देहधारियों में नहीं; लेकिन आत्माओं की दुनिया में, आत्मिक स्थिति में होंगे।” (अ.वा. 21.5.77 पृ.168 अंत) • “पाँव द्वारा आनन्द स्वरूप बनाने की सेवा की तरफ पाँव हों अर्थात् कदम 2 आनन्द स्वरूप बनने और बनाने को ही उठे, यह पाँव का शृंगार है।” (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 अंत)

बिछुए- कदम के पीछे कदम रखने वा श्रीमत पर चलने के बिछुए। – पाँव द्वारा आनन्द स्वरूप बनाने की सेवा की तरफ पाँव हों अर्थात् कदम-कदम आनन्द स्वरूप बनने और बनाने को ही उठें यह पाँव का शृंगार है।

 ड्रेस –“सदा दिव्य गुणों से सजी सजाई ड्रेस जैसे बाप निराकार से आकारी वस्त्र धारण करते हैं। आकारी और निराकारी बाप-दादा बन जाते हैं- आप भी आकारी फरिश्ता ड्रेस पहन कर आओ, चमकीली ड्रेस पहनकर आओ, तब मिलन होगा। ड्रेस पहनना नहीं आता है क्या? ड्रेस पहनो और पहुँच जाओ। यह ऐसी ड्रेस है जो माया के वॉटर या फायर प्रूफ है।” (अन्या.28.11.79 पृ.631 मध्य)

     “बाप-दादा द्वारा भिन्न-भिन्न टाइटिल्स बच्चों को मिले हुए हैं। तो भिन्न-भिन्न टाइटिल्स की स्थिति रूपी ड्रेस और भिन्न-भिन्न गुणों के शृंगार के सेट हैं।… उसी टाइटिल की स्थिति में स्थित होना अर्थात् ड्रेसेज़ को धारण करना। कभी विश्व-कल्याणकारी की ड्रेस पहनो, कभी मास्टर सर्व शक्तिवान की और कभी स्वदर्शन चक्रधारी की। जैसा समय, • जैसा कर्तव्य वैसी ड्रेस धारण करो।… अब एक सेट समझ लिया? पूरा ही सेट ही धारण कर लिया? ऐसे अलग-अलग समय पर अलग-अलग सेट धारण करो।…… तो आपके इतने श्रेष्ठ शृंगार के सेट हैं। वह धारण क्यों नहीं करते हो? पहनते क्यों नही हो? इतनी सब भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ड्रेसेज़ छोड़कर देह अभिमान के स्मृति की मिट्टी वाली ड्रेस क्यों पहनते हो? (अ.वा. 9.1.80 पृ.190 अंत, 191 आदि)

संगमयुगी ल. ना. व सतयुगी ल.ना. अलग

संगमयुगी लक्ष्मी–नारायण. व सतयुगी लक्ष्मी–नारायण अलग

     जो ताज दिखाया गया है वो स्वर्ग की स्थापना की जिम्मेवारी का ताज है जो औरों ने धारण नहीं किया; लेकिन इन्होंने 100 परसेंट उस जिम्मेवारी के ताज को धारण कर लिया। तो इससे भी यह जाहिर होता है कि संगमयुगी ल.ना. संगमयुग के हैं जो राधा-कृष्ण को जन्म देने के निमित्त बनते हैं। डायरेक्ट परमपिता परमात्मा से दिव्य गुणों का शृंगार लेते हैं, शक्तियाँ धारण करते हैं और स्वर्ग की स्थापना की जिम्मेवारी का ताज धारण करते हैं। बाकी इनके जो बच्चे रा. कृ. पैदा होंगे वो कोई स्वर्ग की स्थापना की जिम्मेवारी धारण करने वाले नहीं होंगे। उनकी बुद्धि में तो ज्ञान ही नहीं होगा। बाबा ने तो मुरलियों में ल.ना. के बारे में दो तरह से बोला है। एक जगह बोला है- • “सतयुग में तो बुद्ध होंगे। इन ल. ना. को कुछ भी नॉलेज नहीं है।” (मु. 17.4.71 पृ.3 अंत)

     दूसरी तरफ मुरली में बोला है कि – • “बाप समझाते हैं तुम कितने बेसमझ बन गए हो। अब समझदार बनाते हैं। यह (ल.ना.) समझदार हैं, तब तो विश्व के मालिक हैं। बेसमझ तो विश्व के मालिक हो न सकें।” (मु. 29.7.70 पृ.3 मध्यादि) मुरलियों में ये जो विरोधी बातें आ जाती है, उससे कहीं-2 अल्पज्ञ ब्राह्मणों को मुझान पैदा हो जाती है कि बाबा ने तो मुरलियों में कहीं कुछ, कहीं कुछ बोल दिया है; लेकिन ऐसा नहीं है। बाबा तो जो भी बात बोलते हैं- एक अर्थ वाली ही बोलते हैं। दो अर्थ वाली बात बाबा क्यों बोलेंगे? ‘गॉड इज ट्रुथ’ कहा जाता है और सच्चाई तो एक ही होती है। गीता में भी आया है-

                                                      अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन । 9/19 

   मैं ही ज्ञान मंथन रूपी अमृत हूँ और असत्य रूपी अनिश्चय/मृत्यु भी हूँ। हे सद्भाग्य अर्जनकर्ता अर्जुन! सदा सत्य मैं ही हूँ।

       बाबा की सच्चाई की बात का सही अर्थ न लगा पाने के कारण ऐसा भ्रम पैदा हो जाता है। जहाँ बोला है- ल. ना. बुद्ध हैं वो सतयुगी ल. ना. (रा.कृ.) के लिए बोला है और जहाँ बोला है वो ल. ना. समझदार हैं; विश्व के मालिक समझदार ही बन सकते हैं- वो बोल बोला है संगमयुगी ल. ना. के लिए; क्योंकि संगमयुग में वह पुरुषार्थ करके विश्व की बादशाही का वर्सा परमात्मा बाप से डायरैक्ट लेते हैं। डायरैक्ट ईश्वर से जो वर्सा प्राप्त करने वाली आत्माएँ हैं, वो वास्तव में संगमयुग में ही हो सकती हैं, सतयुग मैं नहीं होतीं। मुरली के महावाक्य के आधार पर भी यह बात क्लीयर हो जाती है कि संगमयुगी ल. ना. अलग हैं और सतयुगी रा. कृ. जो बड़े होकर अपने माँ-बाप का ल.ना. टाइटिल धारण करते हैं वो अलग हैं। संगमयुगी ल.ना. रचयिता हैं और जो रा. कृ. बड़े होकर सतयुगी ल. ना. बनते हैं, वो उनकी रचना हैं।

     माँ-बाप और बच्चों के रूप में भाई-बहन, ये दो ही सतयुगी सम्बन्ध हैं। इसका फाउन्डेशन संगमयुग में पड़ता है। माँ-बाप तो वही बन सकते हैं जो इसी शरीर से पुरुषार्थ करके अपने जीवन में सम्पूर्ण उपलब्धि प्राप्त करें।

     इसलिए बाबा ने मुरली में कहा है- “तुम जानते हो कि अभी हम ईश्वरीय संतान हैं, फिर हम देवी संतान बनेंगे तो डिग्री कम हो जायेगी। यह ल. ना. की भी डिग्री कम है; क्योंकि इनमें ज्ञान नहीं है। ज्ञान ब्राह्मणों में है। ज्ञान बिगर मनुष्य को क्या कहेंगे? अज्ञानी इन (ल.ना.) को अज्ञानी नहीं कहेंगे। इन्होंने ज्ञान ही से यह पद पाया है। (मु. 4.6.67 पृ.3 अंत) संगमयुगी ल. ना. के लिए बाबा ने मुरली में कहा है-“अब हरे जैसा जन्म तो सब कहेंगे इन ल. ना. का ही है।” (मु. 5.2.67 पृ.1 आदि) • “तुम (सब) बता देंगे इन ल. ना. का जन्म कब हुआ। आज से 10 वर्ष कम 5000 वर्ष हुआ। फिर कल 9 वर्ष कम 5000 वर्ष।” (सन् 66 की वाणी है) (मु. 4.3.70 पृ.3 मध्य) बाबा ने मुरली में कहा है- “पुरुषोत्तम संगमयुग पर हीरे जैसा जीवन बनता है। इनको (ल.ना.) को हीरे जैसा नहीं कहेंगे। तुम्हारा हीरे जैसा जन्म है। तुम हो ईश्वरीय संतान, यह देवी संतान । “ (मु. 28.4.68 पृ.2 आदि) • “नारायण से पहले तो श्रीकृष्ण है, फिर तुम ऐसे क्यों कहते हो नर से नारायण बने? क्यों नहीं कहते हो नर से कृष्ण बने ? पहले 2 नारायण थोड़े ही बनेंगे। पहले तो श्रीकृष्ण प्रिन्स ही बनेंगे ना। ….. बाप कहते हैं अभी तुम (हम बच्चे) नर से नारायण, नारी से लक्ष्मी बनने वाले हो गाया भी जाता है बेगर टू प्रिंस” (मु. 16.7.68 पृ.3 मध्य) स्पष्ट है कि नर से श्रीकृष्ण तो ब्रह्मा ही बनेंगे अगले जन्म में; परंतु हम बच्चे ★ इसी संगमयुगी जन्म में नर से नारायण बनते हैं इसीलिये नर से ना बनने का गायन ज़्यादा है। शिवबाबा ने इन्हीं संगमयुगी ना, को समझदार बताया है। जबकि दूसरे सतयुगी नारायणों को ज्ञान न होने के कारण बुद्ध बताया है।

ल.ना. का राज्यकाल-‘संवत् 1 से लेकर 2500 वर्ष

     बाबा ने मुरली में कहा है- • “ल.ना. ने ज़रूर आगे (2018) जन्म में संगम पर राज्य लिया है। लक्ष्मी-नारायण ही 84 जन्म भोग अब इस अंतिम जन्म में हैं। ल.ना. को राज्य किसने दिया? देने वाला कोई तो होगा ना। तो यह सिद्ध होता है। ज़रूर भगवान (ने) दिया होगा; परंतु कैसे दिया। सतयुग आदि में यह महाराजा महारानी कैसे बने यह बाप बैठ समझाते है। (मु. 21.4.72 पृ.3 आदि) • कृष्ण का कितना नाम गाया जाता है। उनके बाप का नाम ही नहीं। उनका बाप कहाँ है? ज़रूर राजा का बच्चा होगा ना। .. कृष्ण जब है तब थोड़े ही पतित रहते हैं। जब वह बिल्कुल खलास हो जाते हैं तब यह गद्दी पर बैठते हैं, अपना राज्य ले लेते हैं। तब से ही उनका संवत् शुरू होता है। लक्ष्मी-नारायण से ही संवत् शुरू होता है।” 29.1.71 पृ.3 अंत) • “हमारा नया वर्ष तो होगा 1-1-11 एक तारीख, एक मास, एक वर्ष।” (मु. 22.10.68 पृ.3 मध्य) “दिन-प्रतिदिन इम्प्रूवमेंट बहुत होती जावेगी। कहीं बच्चे चित्रों में तिथी तारीख बाद लगाना भूल जाते हैं। ल.ना. के चित्र में तिथी तारीख ज़रूर होनी चाहिए।” (मु. 3.6.67 पृ.] मध्य)

     इस चित्र में ल.ना. के पाँवों के बीच में जो छोटी 2 लिखत लिखी हुई है- संवत 1 से लेकर 2500 वर्ष’ यह 2500 वर्ष की लिखत ही इस बात को साबित कर देती है कि यहाँ बीच में जो संगमयुगी ल. ना. का चित्रण है, उनके राज्य का काल दिखाया गया है कि इनका पीढ़ी दर पीढ़ी राज्य काल है 2500 वर्ष का। सतयुग में जो रा.कृ. पैदा होंगे, ल. ना. बनेंगे उनका कार्यकाल कोई 2500 वर्ष थोड़े ही है। वो तो सिर्फ उनकी 8 पीढ़ियों में सतयुगी ल.ना. का कुल मिलाकर 1250 वर्ष राज्य चलेगा; लेकिन यहाँ तो लिखा हुआ है 2500 वर्ष इससे भी यह बात साबित हो जाती है कि ये वो ही राम सीता बाली आत्माएँ हैं जो संगमयुग में पूरा पुरुषार्थ करके रामराज्य स्थापन करती हैं और ल. ना. की डिनायस्टी शुरू करने के निमित्त बनती हैं और यही आत्माएँ त्रेता में जाकर फर्स्ट जन्म में राम-सीता के रूप में जन्म लेंगी और वहाँ 12 पीढ़ियों तक इन राम-सीता की राजाई चलेगी। 1250 वर्ष त्रेतायुग की राजाई और 1250 वर्ष की ल.ना. के नाम से सतयुग की राजाई, ये दोनों मिलाकर दोनों प्रकार की राजाइयों को स्थापन करने वाली आत्माएँ ये संगमयुग में संगमयुगी ल. ना. हैं। इसलिए इनके पैरों के बीच में लिखा हुआ है- संवत् 1 से लेकर 2500 वर्ष इस लिखत से भी यह क्लीयर हो जाता है कि ये राम-सीता वाली आत्माएँ यहाँ संगमयुगी ल.ना. के रूप में प्रकाश के वलय में खड़ी हुई दिखाई गई हैं। ये सतयुगी ल. ना. बनने वाली आत्माएँ नहीं हैं। हाँ, इनका टाइटिल सतयुग में 8 पीढ़ियों तक चलता रहेगा। बाबा ने मुरली में कहा है- • “यह अभी जानते हैं हम सो (संगमयुगी) ल. ना. बनते हैं। हम सो राम-सीता बनेंगे।” (मु. 25.5.72 पृ.3 मध्यांत) इसी तरह दूसरी मुरली में कहा है- “सतयुग में ल. ना. का राज्य है। फिर यहीं त्रेता में भी राज्य करते हैं।” (मु. 9.11.72 पृ.3 मध्यादि) चूँकि त्रेतायुगी राम के अंतिम 84 वें संगमयुगी शरीर के द्वारा ही निराकार राम शिव प्रैक्टिकल में सतयुग की स्थापना कराते हैं; इसलिए सतयुग को भी रामराज्य या रामपुरी कहा जाता है। बाबा ने मुरली में कहा है- “सतयुग को रामपुरी कहा जाता है। अक्षर कहते हैं; परंतु यह नहीं जानते कि राम कौन है?” (मु.4.3.70 पृ.2 अंत) • “जिस नाम से (रामराज्य की स्थापना होती तो जरूर उनका नाम ही रखेंगे।” (मु. 25.5.74 पृ.1 मध्य) परंतु शिव तो स्वर्ग में जाते ही नहीं। अतः शिवराज्य, नारायणराज्य, कृष्णराज्य का गायन नहीं है। रामराज्य का ही गायन है। इसलिए मुरली में कहा है- “रामराज्य है सतयुग (के) आदि में।” (मु. 2.8.76 पृ.3 मध्य)

 

विश्वमहाराजन और सतयुगी महाराजन में अंतर

      यही कारण है कि इनके पैरों के नीचे जो मोटी2 लिखत लिखी हुई है- ‘सतयुगी विश्व महाराजन श्री नारायण तथा विश्वमहारानी श्री लक्ष्मी’। यह लिखत भी इस बात को साबित करती है कि चित्र में संगमयुगी ज्ञान प्रकाश के वलय में बीच में खड़े हुए जो ल.ना. हैं ये विश्वमहाराजन हैं, ये सतयुगी महाराजन नहीं हैं। विश्वमहाराजन और सतयुगी महाराजन में अंतर है। “जब विश्वराजन बनेंगे तो विश्व का बाप ही कहेंगे ना। विश्व के राजन विश्व के बाप हैं ना।” (अ.वा. 6.8.70 पृ.303 अंत) • “विश्व राजन बनना व सतयुगी राजन बनना इसमें भी अंतर है।” (अ.वा.28.1.85 पृ.146 मध्य) विश्व धर्म जहाँ होते हैं वहाँ विश्वमहाराजन होंगे। सारा विश्व माना सारा जगत। माना 500 करोड़ की मनुष्य आत्माएँ उनके प्रति नतमस्तक होंगी। अंग्रेज लोग भी उनको कहेंगे ‘लॉर्ड कृष्ण’ अंग्रेज लोग भी उनको मानेंगे। मुरली में भी ऐसे-ऐसे महावाक्य आए हैं जिनसे यह साबित हो जाता है कि स्वर्ग के रचयिता ल. ना. संगमयुग में होते हैं। जैसे एक वाक्य है- “सब कहेंगे इन ल. ना. को हेविन का रचयिता, हेविनली गॉडफादर”। हेविनली गॉडफादर तो हेविन के रचयिता ही कहे जायेंगे। हाँ, यह है कि जब से ये ल. ना. के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं तब से परमात्मा बाप की प्रवेशता की बात इनमें साबित नहीं होती; क्योंकि फिर तो ये पवित्र बन जाते हैं; लेकिन विश्व को कन्ट्रोल करने की परमपिता परमात्मा की पूरी शक्ति तो इनमें आ ही जाती है न! इस आधार पर ये संगमयुगी ल. ना. अलग साबित हो जाते हैं। और मुरली में यह भी कहा है- • “राम भी वास्तव में जगतजीत था ना।” (मु. 15.12.72 पृ.1 मध्य) वास्तव में 500 करोड़ की विश्व को जगत कहा जाता है। यही कारण है कि चित्र में ल.ना. के पैरों तले की लिखत में विश्व महाराजन श्री ना. शब्द प्रयोग किया गया है। वास्तव में राधा-कृष्ण की आत्माएँ 500 करोड़ की विश्व पर संगमयुगी राजाई नहीं करेंगी। वे सिर्फ 9 लाख की आबादी पर राजाई करेंगी। इसलिए राधा-कृष्ण को विश्वमहाराजन न कहकर सतयुग का मालिक कह सकते हैं। इसलिए बाबा ने मुरली में कहा भी है- • “ऊँच-ते-ऊँच बाप से ऊँच-ते-ऊँच वरसा मिलता है। वह (वरसा) है ही भगवान (भगवती का)। फिर सेकेंड में हैं ल. ना. विश्व के मालिक।” (मु. 8.1.67 पृ.2 मध्यांत) राधा-कृष्ण को देवी-देवता कहेंगे। भगवान भगवती नहीं। इसलिए बाबा ने मुरली में कहा है- • “भगवान (शिव) ने ज़रूर भगवती भगवान पैदा किये।” (मु. 24.5.64 पृ.2 अंत

संगमयुगी स्वर्ग

संगमयुगी स्वर्ग

 

     “वह है ही वण्डर ऑफ वर्ल्ड । स्वर्ग पैराडाइज़ । यहाँ सात वण्डर्स कहते हैं ना। यह हैं मायावी । ईश्वरीय वण्डर है स्वर्ग। वह स्वर्ग का वण्डर अभी न है तो माया के वण्डर्स बनते हैं।” (मु. 9.2.68 पृ.2 अंत) • “स्वर्ग को भी वण्डर कहा जाता है ना। कितना शोभनिक है। माया के सात वण्डर्स हैं। बाप का है एक वण्डर। वह सात वण्डर्स एक पूर में रखो और यह एक पूर में रखो तो भी यह भारी हो जावेगा।” (मु. 5.12.68 पृ.2 मध्य) • “तुम स्वर्ग की स्थापना कर रहे हो। तुम्हारे जैसा इंजीनियर, ऑफिसर कोई हो न सके। (मु. 23.2.68 पृ.4 अंत)

     यहाँ माने संगमयुग में और वहाँ माने सतयुगी स्वर्ग में।

1. सतयुग की दिनचर्या में प्रकृति के नैचुरल साज जगायेंगे लेकिन संगमयुगी ब्राह्मणों के आदिकाल – अमृतवेले से श्रेष्ठता देखो तो कितनी महान है। वहाँ प्रकृति का साधन है और संगमयुग पर आदिकाल अर्थात् अमृतवेले कौन जगाता है? स्वयं प्रकृति का मालिक भगवान तुम्हें जगाता है। 

2. मधुर साज़ कौन सा सुनते हो? बाप रोज़ “बच्चे – मीठे बच्चे” कहकर बुलाते हैं। यह नैचुरल साज़, ईश्वरीय साज़ सतयुगी प्रकृति के साज़ से कितना महान है। उसके अनुभवी हो ना? तो सतयुगी साज़ महान हैं या ये संगमयुग के साज़ महान हैं? साथ-2 सतयुग के संस्कार और प्रारब्ध बनाने व भरने का समय है। संस्कार भरते हैं, प्रारब्ध बनती है। इसी संगमयुग पर ही सब होता है। 

3. वहाँ सतोप्रधान अति स्वादिष्ट रस वाले वृक्ष के फल खाएंगे । यहाँ वृक्षपति द्वारा सर्वसंबंध के रस, सर्वप्राप्ति – संपन्न प्रत्यक्ष फल खाते हो। 

4. वह गोल्डन एज का फल है। और यह डायमन्ड एज का फल है, तो श्रेष्ठ कौन-सा हुआ? 5. वहाँ दास-दासियों के हाथ में पलेंगे यहाँ बाप के हाथों में पल रहे हो। 

6. वहाँ महान आत्माएँ माँ-बाप होंगे, यहाँ परमात्मा माता-पिता हैं। 

7. वहाँ रतन जड़ित झूलों में झूलेंगे यहाँ सबसे बड़े से बड़ा झूला कौन-सा है, वह जानते हो? बाप की गोदी झूला है। बच्चे के लिए सबसे प्यारा झूला माता-पिता की गोदी है। सिर्फ़ एक झूला भी नहीं, भिन्न-2 झूलों में झूल सकते हो। अतीन्द्रिय सुख का झूला, खुशियों का झूला। 

8. वहाँ रतनों से खेलेंगे, खिलौनों से खेलेंगे, आपस में खेलेंगे लेकिन यहाँ बाप कहते हैं, सदा मेरे से, जिस भी रूप में चाहो उस रूप में खेल सकते हो। सखा बन करके खेल सकते हो, बंधू मन खेल सकते हो। बच्चा बन करके भी खेल सकते हो। बच्चा बनाकर के भी खेल सकते हो। ऐसा अविनाशी खिलौना तो कभी नहीं मिलेगा। जो न टूटेगा न फूटेगा और खर्चा भी नहीं करना पड़ेगा। 

9. वहाँ आराम से गदेलों पर सोयेंगे, यहाँ याद के गदेलों पर सो जाओ। 

10, वहाँ निन्द्रा-लोक में चले जाते हो लेकिन संगम पर बाप के साथ सूक्ष्मवतन में चले जाओ। 

11. वहाँ के विमानों में सिर्फ एक लोक का सैर कर सकेंगे और अब बुद्धि रूपी बिमान द्वारा तीनों लोकों का सैर कर सकते ही। 

12. वहाँ विश्वनाथ कहलायेंगे और अब त्रिलोकीनाथ हो। 

13. वहाँ दो नेत्री होंगे, यहाँ तीन नेत्री हो। 

14. संगमयुग के अंतर में अर्थात् नालेजफुल, पावरफुल, ब्लिसफुल इसके अंतर में वहाँ क्या बन जायेंगे? रॉयल बुद्ध बन जायेंगे। 

15. दुनिया के हिसाब से परमपूज्य होंगे, विश्व द्वारा माननीय होंगे; लेकिन नालेज के हिसाब से महान अंतर पड़ जायेगा। 

16. यहाँ तो गुडमार्निंग, गुडनाइट बाप से करते हो और वहाँ आत्माएँ आत्माओं से करेंगी। 

17- वहाँ विश्व राज्य अधिकारी होंगे, राज्य-कर्ता होंगे और यहाँ विश्व कल्याणकारी, महादानी, वरदानी हो। तो श्रेष्ठ कौन हुए? सतयुगी बातें तो सुनकर सदा खुशी स्वरूप बन जाओ। 

18. वहाँ वैराइटी प्रकार का भोजन खायेंगे और यहाँ ब्रह्मा भोजन खाते हो जिसकी महिमा देवताओं के भोजन से भी अति श्रेष्ठ है। तो सदा सतयुगी प्रारब्ध और वर्तमान समय के महत्व और प्राप्ति को साथ 2 रखो। (अ. वाणी 7.1.80 पृ.753, 754, 755)

     सोने के, हीरे के महल होंगे। सोना मतलब सच्चाई। महल मतलब संगठन । सच्ची-2 आत्माओं के संगठन रूपी महल होंगे, संगठन रूपी किले होंगे। हीरे के महल होंगे। हीरा मतलब? हीरो पार्टधारी आत्माएँ होंगी। अष्टदेव क्या हैं? हीरो पार्टधारी हैं। संगमयुगी स्वर्ग मतलब कलियुगी जो नर्क है वो है लोहे और पत्थर की दुनिया और संगमयुगी स्वर्ग है सोने की दुनिया। सोना मतलब सच्चे संगठन होंगे उसमें सच्चे बच्चों का संगठन होगा। झूठों का संगठन नहीं होगा। संगमयुगी स्वर्ग में मकान, महल और किले कैसे होंगे? अनेक मंज़िल वाले नहीं होंगे। किला माना संगठन। ईंटों को जोड़-जोड़कर मकान, किला बनता है। तो ये हैं चेतन ईंट- आत्माएँ और इनको स्नेह के गारे से जोड़ा जाता है। परमात्मा ही आकर जोड़ता है। तो जो माया के बनाए हुए संगठन हैं वो बहुत मंजिलों वाले हैं और बाप का जो बनाया हुआ संगठन है उसमें बहुत मंज़िलें नहीं हैं। ऐसे नहीं कि एक संगठन के ऊपर दूसरा संगठन, दूसरे संगठन के ऊपर तीसरा संगठन, जैसे कि जिज्ञासु अपने परिवार के साथ ज्ञान में चल रहा है, वो भी एक संगठन हुआ। फिर वो जिस गीता पाठशाला में जाता है उसके अण्डर दी कन्ट्रोल उसको रहना पड़े। यह उससे ऊपर का संगठन हो गया। तो दूसरी मंज़िल हो गई। फिर गीता -पाठशाला किसी सेंटर से लगी हुई है। तो सेन्टर के कन्ट्रोल में गीता-पाठशालाओं को रहना पड़ता है। तो कौन-सी मंज़िल हो गई? यह तीसरी मंज़िल हो गई। फिर सेन्टर को छोटे-मोटे जोनल इन्चार्ज के कन्ट्रोल में रहना पड़ता है। चौथी मंज़िल हो गई। छोटे-मोटे जोनल इन्चार्ज को बड़े जोनल इन्चार्ज के कन्ट्रोल में रहना पड़ता है। पाँचवीं मंज़िल हो गई। तो यहाँ इस दुनिया में एक के ऊपर दूसरे संगठन रूपी महल होते हैं, (एक-दूसरे के ऊपर बैठे हुए हैं कन्ट्रोल करने के लिए); लेकिन नई दुनिया में सिर्फ एक ही राजा (और एक ही धर्म) होगा। (दूसरी धारणाएँ, दूसरा शासन नहीं होता। ) सतयुग में, 21 जन्मों में से पहले जन्म का जो राज-भाग होगा वो एक के द्वारा कन्ट्रोल होगा। वहाँ मंज़िलें नहीं होंगी। संगठन के ऊपर कोई दूसरा संगठन नहीं होगा। सारा विश्व एक ही परिवार होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् – यह भक्तिमार्ग में बोलते हैं कि सारी दुनिया हमारा कुटुम्ब है। सतयुग में आत्मिक स्नेह बहुत होगा और सतयुग में भी जो पहला जन्म होगा, फर्स्ट जन्म में एक के प्रति लगाव बहुत होगा। उसका राजा ही माई-बाप माना जाएगा।

     जो स्वर्णिम संगमयुग होगा उसमें घी-दूध की नदियाँ बहेंगी का मतलब यह है- घृत कौन-सा है ? याद का। इतना शुद्ध घृत होगा, इतना याद का घी होगा कि खूब नहाओ ! कमी नहीं पड़ेगी। अभी तो खींच-खींचकर योग लगाते हैं तो भी नहीं लगता। अमृतवेले बैठते हैं नींद आने लगती है। वहाँ तो घी की नदियाँ बहेंगी। यह घृत याद का घृत है। ज्ञान का दूध है। हद के दूध और घी की बात नहीं है। बेहद का बाप बेहद के बच्चों से बेहद की बातें करते हैं।

     “ऐसे दुनिया में जाते हैं जहाँ शेर बकरी इकट्ठे जल पीते हैं।” (मु. 8.5.70 पृ.3 अंत) शेर-बकरी एक घाट पर पानी पियेंगे। शेर कौन ?- रुद्रमाला में नम्बरवार शेर तो हैं। खूँखार भी हैं। अव्वल नं. शेर भी होगा। अशोक की लाट में क्या दिखाते हैं? तीन शेर दिखाते हैं ना। वे कौन हैं? ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ये तीन आत्माएँ शेर के रूप में दिखाई हैं। तो वह शेर भी होगा और उसके मुकाबले बकरी भी होगी। बकरी की क्या खासियत है? एक तो मैं-मैं का पाठ ज़्यादा पढ़ती है, पढ़ाती है और दूसरा- जो कान पकड़ ले, बस, उसी के अण्डर में आ जाती है। बाबा ने कहा है- त्रिमूर्ति में तीन शेर नहीं हैं वास्तव में एक बकरी है, एक घोड़ा है, एक शेर है। शेर कौन हुआ? जो प्रजापिता है वही शेर है और बकरी हो गई विष्णु / वैष्णवी देवी। शिवबाबा के दरबार में दोनों एक घाट में बैठकर के पानी पीते हैं। पानी मतलब? ज्ञान जल शेर जैसी ज्ञान की दहाड़ मारने वाली आत्माएँ और बकरी जैसी मैं-मैं करने वाली आत्माएँ दोनों ही एक घाट पर जल पियेंगे। कौन-सा घाट ? ज्ञान का घाट ।

     पुष्पक विमान कोई दूसरी चीज़ नहीं होती है। अभी पुरूषार्थ करने वाले रावण सम्प्रदाय भी हैं और राम सम्प्रदाय भी हैं जो रावण सम्प्रदाय हैं वो भी पुष्प वर्षा कर रहे हैं माना फूल बना रहे हैं। क्या ? वो भी काँटों को क्या बना रहे हैं? वो भी फूल बना रहे हैं। जितनी उनको अपल भगवान से मिली हुई है वो रायण सम्प्रदाय वाली आत्माएँ चाहे एडवान्स की बीजरूप आत्माएँ हो और चाहे बेसिफ में आधारमूर्त आत्माओं में से हो नम्बरवार उनमें रावण सम्प्रदाय है या नहीं हैं? बेसिक वालों में भी रावण सम्प्रदाय हैं, एडवान्स पार्टी वालों में भी रावण सम्प्रदाय हैं। वो रावण सम्प्रदाय जितनी-2 जिसने पढ़ाई को कैच किया है उतना फूल बनाने की सेवा में लगे हुये हैं। उसी को कहते हैं- पुष्पक विमान। ये आत्मा रूपी विमान है। यो विमान नहीं है जो स्थूल विमान शास्त्रों में दिखाय दिया है।

     तो ऐसे ही स्वर्णिम संगमयुग में जो राजधानी स्थापन होनी है उसमें सभी आत्माओं के अपने-2 पुरुषार्थ के अनुसार पद भी डिक्लीयर होंगे, जिसके लिए बाबा ने मुरली में कहा है- “बाबा कहे यह काम न करो, मानेंगे नहीं। ज़रूर उल्टा काम करके दिखायेंगे। राजधानी स्थापन हो रही है, उसमें तो हर प्रकार की (के) चाहिए ना।” (मु.10.12.68 पृ.3 मध्यांत)

     जो अच्छी रीति धारणा करते और कराते हैं, राजा-रानी बनेंगे। जो न करते हैं, न कराते हैं वो जाकर दास-दासियाँ अर्थात वर्थ नॉट ए पेनी बनेंगे। उनको यह ख्याल नहीं आ सकता कि जाकर राजा-रानी बने। कम दर्जा पाने वाले का यह हाल होगा न पढ़ेंगे, न बाप की याद में रहेंगे।

     बाबा कहते हैं ना सेवा के चक्कर लगाएंगे तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे। जो सबसे जास्ती सेवा के चक्कर काटेंगे तो सबसे बड़े राजा बनेंगे। मनबुद्धि, कर्मेन्द्रियों और वाचा से लौकिक दुनिया के, धन्धाधोरी के चक्कर काटते रहे तो सबसे बड़े बनेंगे या छोटे बनेंगे? फिर तो छोटे बन जाएँगे। कहाँ चक्कर काटें? ईश्वरीय सेवा में मनसा भी लगी रहे, तन से भी लगे रहें और वाचा से भी लगे रहें। बड़े से बड़ा जो चक्कर काटने वाले बनेंगे वो बड़े राजा बनेंगे। इसलिए खूब स्वदर्शन चक्कर घुमाओ और ईश्वरीय सेवा के चक्कर काटो तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे। वारिसदार वो बनते हैं जो सिर्फ ईश्वरीय सेवा के लिए समर्पित होते हैं। दुनियावी धन्धे धोरी ख़त्म हो गए। जो बाप का धन्धा सो बच्चों का धन्धा जो वारिसदार होंगे वो तो राजा बनने वाले की क्वालिटी के होंगे ना। तो जो राजा बनेंगे उनकी चलन भी रॉयल्टी की होगी या साधारण चाल होगी? स्पेशल उनकी चाल ही देखने में आ जावेगी। जब राजा बनेंगे तो प्रजा तो बनाई होगी। एक राजा होता है उसके नीचे लाखों की तादाद में प्रजा होती है। तो इतनी लाखों आत्माओं को संदेश भी तो दिया होगा। लाखों आत्माओं की नज़रों में वो चढ़े हुए भी तो होंगे कि देखो, इन्होंने हमको कितना श्रेष्ठ रास्ता बताया। यह तो राजाओं की क्वालिटी गई। “महाराजाएँ, विश्व का राजा वह बनेगा जो विश्व के (की) हर आत्मा से संबंध जोड़ेंगे और सहयोगी बनेंगे। जैसे बाप दादा विश्व के स्नेही और सहयोगी बने, वैसे बच्चों को भी फॉलो करना है, तब विश्व के महाराजन की जो पदवी है उसमें आने के अधिकारी बन सकते हो।” (अ.वा. 28.10.76 पृ.2 आदि) 

 राजाएँ “देहीअभिमानी बनने बिगर राजाएँ बन न सकेंगे।” (मु. 16.2.73 पृ.1 मध्य)

 राज्य अधिकारी– “राज्य अधिकारी बनना है तो स्नेह के साथ पढ़ाई की शक्ति अर्थात् ज्ञान की शक्ति, सेवा की शक्ति, यह भी आवश्यक है।” (अ.वा. 18.1.85 पृ.1 अंत)

 महारथी, घोड़ेसवार, प्यादे- “जो महारथी कहलाए जाते हैं उनकी प्रैक्टिस और प्रैक्टिकल साथ-2 होना चाहिए। महारथियों की निशानी होगी प्रैक्टिस की और प्रैक्टिकल हुआ। घोड़ेसवार प्रैक्टिस करने के बाद प्रैक्टिकल में आवेंगे और प्यादे प्लैन्स ही सोचते रहेंगे।” (अ.वा. 26.3.70 पृ.228 मध्य) “महावीर बच्चों की विशेषता यह है कि पहले याद को रखते, फिर सेवा को रखते। घोड़सवार और प्यादे पहले सेवा, पीछे याद। इसीलिए फर्क पड़ जाता है। पहले याद, फिर सेवा करें तो सफलता है। पहले सेवा को रखने से सेवा में जो भी अच्छा-बुरा होता है उसके रूप में आ जाते हैं और पहले याद को रखने से सहज ही न्यारे हो सकते हैं।” (अ.वा. 29.4.84 पृ.281 मध्य)

 साहूकार प्रजा-“इसी तरह से साहूकार प्रजा भी होगी। तो यहाँ भी कई राजे नहीं बने हैं; लेकिन साहूकार बने हैं; क्योंकि ज्ञान रत्नों का खजाना बहुत है, सेवा कर पुण्य का खाता भी जमा बहुत है; लेकिन समय आने पर स्वयं को अधिकारी बनाकर सफलतामूर्त बन जायें वह कन्ट्रोलिंग पावर और रूलिंग पावर नहीं है अर्थात् नॉलेजफुल हैं; लेकिन पावरफुल नहीं हैं। शस्त्रधारी हैं; लेकिन समय पर कार्य में नहीं ला सकते हैं। स्टॉक है; लेकिन समय पर न स्वयं यूज कर सकते और न औरों को यूज करा सकते हैं। विधान आता है; लेकिन विधि नहीं आती। ऐसे भी संस्कार वाली आत्माएँ हैं अर्थात् साहूकार संस्कार वाली हैं। जो राज्य अधिकारी आत्माओं के सदा समीप के साथी ज़रूर होते हैं; लेकिन स्व अधिकारी नहीं होते।” (अ.वा. 14.1.82 पृ.238 अंत, 239 आदि ) “ जो प्रजा में साहूकार बनने होंगे वह ज्ञान भी सुनेंगे, बीज भी बोयेंगे लेकिन पढ़ाई ज्यादा नहीं पढ़ेंगे। पवित्र रहेंगे।” (मु.31.7.73 पृ.2 आदि)

 प्रजा- प्रजावर्ग वाले क्या करेंगे? पवित्रता का पुरुषार्थ करेंगे ? यहाँ जो – ब्राह्मण जीवन में है वो मुख्य पुरुषार्थ क्या है? घर-गृहस्थ में रहते पवित्र रहने का पुरुषार्थी जीवन हो। ये संदेश तो ले लेते हैं; लेकिन पवित्र रहने का पुरुषार्थ नहीं करते। जब पवित्र रहने का पुरुषार्थ ही नहीं करते तो रेगुलर क्लास भी, परमात्मा बाप की पढ़ाई भी नहीं पढ़ते। फिर ईश्वरीय सेवा की तो बात ही नहीं। वो प्रजा में चले जाते हैं। • “कोई भी कर्म-इन्द्रियों के वशीभूत होना अर्थात् रूलिंग पावर नहीं है, जिससे कि “स्व” पर राज्य नहीं कर सकता। …… जब स्वयं पर प्रजा का राज्य है और कर्म-इन्द्रियाँ प्रजा हैं तो जब तक प्रजा का राज्य है तो समझो प्रजा बनने वाले हैं।” (अ.वा. 11.10.75 पृ.175 अंत)

दास-दासी- जो बाप के बन जाते हैं वो फिर अन्दर के दास-दासियाँ आदि बनते हैं। सम्बन्ध तो बाप से जोड़ा; लेकिन क्या गड़बड़ हो गई? कोई भी प्रकार की सेवा तो करते ही नहीं है, और ही डिससर्विस करते हैं (और 16000 की लिस्ट में तो ऐसे-2 भी हैं जो भाग जाते हैं, बाप को धोखा दे जाते हैं, धमचक्कर मचाते हैं, बाप की ग्लानि करते हैं) तो फिर वो क्या बनेंगे? वो फिर दास-दासी बन जाते हैं। तो दास-दासियाँ बनते-2 फिर पिछाड़ी में नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार ताज मिल जाता है। पिछाड़ी में क्यों मिलता ? आखिर पढ़ाने वाला कौन है? जो बाप के बने एक बार, सरेण्डर हुए तो जिम्मेवार कौन हो गया? बाप जिम्मेवार हो गया। तो बाप जिनका जिम्मेवार हो गया, तो बाप छोड़ देगा उन्हें? नहीं। कोई भी हालत में उन समर्पित होने वालों को ताज – पतलून तो देना ही है। अंतिम जन्म में लेंगे तो प्राप्ति कम है और आदि के जन्म में लेंगे तो प्राप्ति ज्यादा है। आदि के जन्मों में दास-दासी बनते रहे और अंतिम जन्म में जाकर ताज- पतलून मिल गया। तो 63 जन्मों पर क्या असर पड़ेगा? 21 जन्मों के आधार पर 63 जन्मों का भी हिसाब-किताब बन जाता है। तो जो दास-दासियाँ बनने वाले हैं या कोई भी सेवा करने वाले नहीं है, वर्तमान में देखा जाता है, उन्हों को भी अन्त में धारणा तो होनी ही है। ईश्वर जो पढ़ाई पढ़ाते हैं, उस पढ़ाई की धारणा तो होनी ही है और धारणा होगी तो जिम्मेवारी का ताज भी मिलेगा। आदि से अन्त तक वो प्रजा में आते रहे, ऐसे नहीं हो सकता। ज्यादा जन्मों में दास-दासी बनेंगे, लेकिन कौन-से परिवार में बनेंगे ? राजपरिवार के दास दासी बनेंगे। साहुकार प्रजावर्ग में होते हैं या राजपरिवार में? प्रजावर्ग में तो साहुकारों के दास-दासी नहीं बनेंगे। प्रजावर्ग के दास-दासी नहीं बनेंगे, राजपरिवार के दास-दासी बनते रहेंगे और फिर जब सुधरेंगे अंतिम जन्म में या अन्त के पुरुषार्थ में, आखिरीन सारी दुनिया में आवाज़ फैलेगी तो आँखें खुलेंगी या बन्द रहेंगी ? आँखें खुल जायेंगी। समझ जाएँगे कि हमको पढ़ाई पढ़ाने वाला कौन है। • “बार-2 कोई न कोई कर्म इन्द्रियों के वा देहधारियों और देह के सम्पर्क से उन्हों के दास बन जाते हैं और उदास हो जाते हैं तो समझो दास-दासी बनने वाले हैं।” (अ.वा. 11.10.75 पृ.176 मध्यादि)

राजकुल के चाण्डाल- राजघराने में सबसे नीच-ते-नीच पद है चण्डाल का । अगर कोई पवित्र नहीं रहते हैं और झूठ बोलते हैं तो नुकसान अपने को ही पहुँचावेंगे। अपना पोतामेल सही नहीं देते हैं, अपने को छुपाते हैं और दिखावा कुछ और करते हैं। तो उनका अपना नुकसान होगा। गाया हुआ है- देवताओं की सभा में असुर आक बैठते थे। गलतियाँ तो सबसे होती हैं, माया किसको छोड़ती नहीं है; लेकिन एक होता है सच्चा और एक होता है झूठा। तो जो सच्चे होते हैं वो सच्चाई से अपना पोतामेल बाप को दे देते हैं कि हमसे यह गलती होती हैं; हम अपन को ठहराव नहीं सकते। अपनी गलती को स्वीकार कर लेते हैं और जो अहंकारी हैं, जिनको बाबा कहते हैं- देहअभिमानी साडे। तो जो अहंकार में आते हैं वो अपना पोतामेल नहीं देते। तो विकार में जाय, छिपकर जाय बैठते हैं तो असुर हुए। आपे ही अपना पद भ्रष्ट कर लेंगे। ऐसे चण्डाल का पद पावेंगे। सबसे नीचा पढ़ कौन-सा होता है? चण्डाल। चण्डाल क्या करता है? जो मुर्दा है, मर जाता है ना, उसको जलाने का काम चण्डाल का होता है। तो जो ज्ञान में चलते-2 अभी ब्राह्मण तो बने हैं; लेकिन मुर्दा होकर चल रहे हैं, कोई बात पर गहराई से ध्यान ही नहीं देते, जैसे मुर्दा बन पड़े हैं, कोई मनन-चिंतन- मंथन नहीं करना चाहते, अपनी ही दुनियादारी में लगे रहते हैं, बाप कितनी उंची पढ़ाई पढ़ा रहे हैं वो उनकी बुद्धि में नहीं बैठ रहा है, ऐसे मुर्दों को आग लगाने का काम उन चण्डालों को सौंपा जाता है। कौन हुए चण्डाल? जो ब्राह्मणों की सभा में, ब्रह्मा बाबा के सामने या परमात्मा बाप के सामने आकर छुपकर बैठते हैं, अपने पाप-कर्म को छुपाते हैं, विकारी भी बनते रहते हैं और अपनी विकारी वृत्तियों को अहंकार में आकर छुपाते हैं तो वो चण्डाल बनते हैं।

“जो आश्चर्यवत् भागन्ति होते वे तो प्रजा में चंडाल बनेंगे; परंतु जो यहाँ रह बहुत शैतानी, चोरी-चकारी आदि करते हैं तो वो रॉयल घराने के चंडाल बनते हैं। फिर भी पिछाड़ी में उनको ताज पतलून मिल जाती है।…. यहाँ गोद तो लेते हैं। ना।” (मु. 9.8.64 पृ.4 आदि)

 प्रजा वर्ग के चाण्डाल- अब बाबा के पास प्रजा भी नम्बरवार है। जो नीचे ते नीची प्रजा होती है वो है चण्डाल। बहुत गरीब प्रजा होती है। गरीब और साहुकार तो होते ही हैं। तो बाबा बच्चों से एक पैसा भी नहीं लेता है। बाबा बच्चों से माँगता नहीं है। बच्चे अपना कल्याण करने के लिए, भविष्य में अपना नूंध करने के लिए स्वतः ही यज्ञ में देते हैं, स्वाहा करते हैं। बाबा को दरकार नहीं है; लेकिन कोई देते हैं और देकर फिर वापस लेते हैं (धन का मिसाल दिया), तो क्या बनते हैं? चण्डाल प्रजा बन जाते हैं। बाप का तो सबकुछ बच्चों के लिए है। बच्चों को यह कभी भी नहीं सोचना है कि हमने बाबा को दिया; बाबा तो खुद ही इतना पुरुषार्थी है कि उसे किसी से कुछ लेने की दरकार ही नहीं। जो आत्मा एक जन्म में ही सिपाही से सम्राट बन सकती है. तो वो किसी से माँगेगी क्या? एक ही जन्म में इतना ऊँचा पुरुषार्थ कर सकती है तो उसे किसी से हाथ फैलाने की दरकार नहीं है। जो पुरुषार्थी जीवन में हारे हुए होते हैं वो काम-धन्धा सब छोड़कर सन्यासी बनकर दरवाजे-2 भीख माँगने लग पड़ते हैं। तो बाप स्वाभिमानी तो बाप के बच्चे भी स्वाभिमानी। तो बाबा को दिया यह बुद्धि में नहीं आना चाहिए कि हम इतना देते हैं। नहीं, तुम अपने लिए इकट्ठा करते हो। बाप भी अपने लिए कुछ नहीं इकट्ठा करते और बच्चे भी अपने लिए कुछ भी इकट्ठा नहीं करते। बाबा तो तुम्हारे धन की सिर्फ रक्षा करते हैं जो कि बच्चों को अगले जन्म में काम आ जावे। बाबा की यह बैंक है अविनाशी, जो भी देते हैं उस बैंक में इतना अविनाशी धन जमा रहता है कि यहाँ का यहाँ भी तुम्हारे काम आवेगा। बाबा वाप लेकर नहीं जावेगा। तुम्हारा लिया हुआ यहाँ ही तुमको वापस कर देगा और 21 जन्मों के लिए ब्याज में भी दे देगा। • “बाप कहते हैं ना जो जाकर मेरी निंदा करते हैं, ग्लानि करते हैं, हाथ छोड़ जाते हैं वो प्रजा में जाकर चाण्डाल बनते हैं।” (मु. 10.7.67 पृ.3 आदि) • “कब क्रोध न करना है। उसी समय तुम ब्राहमण नहीं, चाण्डाल हो; क्योंकि क्रोध का भूत है।” (मु. 7.5.77 पृ.2 मध्यांत)

     और फिर ऐसे भी हैं – क्लास भी करके दिखाते हैं। लोग समझते हैं- यह बड़े सर्विसएबुल हैं; लेकिन बाप की नज़रें समझती हैं ये सर्विस नहीं कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं? और ही डिससर्विस कर रहे हैं माने दिखावटी ज़्यादा हैं। पब्लिक को रिझाए लेते हैं; लेकिन बाप को तो कोई रिझाए नहीं सकता। तो वो भक्त बनते हैं। भक्तों में यह दिखावा ज़्यादा होता है। सुनना और सुनाना जास्ती होता है। पॉम्प एण्ड शो जास्ती होता है। ऐसे फिर और 2 धर्मों में कनवर्ट होने वाले भक्त बन जाते हैं। (नोट- अधिक जानकारी के लिए ‘राजधानी में कौन क्या बनेगा’ पुस्तक का अध्ययन करें।)

     ऊँच पद पाने का आधार है रेगुलर और पंक्चुअल पढ़ाई। यह भी एक सर्विस है- क्लास में टाइम से पहुँचना और रोज़ पहुँचना। इससे बाप की और टीचर की दुआएँ मिलती हैं; क्योंकि वो संगठन को मजबूत बनाते हैं। कौन? जो रेगुलर और पंक्चुअल स्टूडेन्ट्स हैं। संगठन को मजबूत बनाने की वजह से वो आत्माएँ जो हैं, वो बाप की नज़रों में भी ऊँची हो जावेंगी और सारे ब्राह्मण परिवार की नज़रों में भी ऊँची हो जाएँगी। हो सकता है कि लास्ट में वो बहुत ऊँचा पद पा जाएँ; क्योंकि बाप के दिल पर अभी भी चढ़े हुए हैं और लास्ट में भी चढ़े हुए रहेंगे। तो वो सतयुग के आदि से ही मध्य तक और अन्त तक भी राजघराने में जन्म लेते रहेंगे। 16 हज़ार की लिस्ट में भले आएँ; लेकिन आदि से अन्त तक राजघराने की आत्माएँ बनकर रहेंगे; क्योंकि सरेण्डर बुद्धि होकर चल रहे हैं  

     “पढ़ाई से कब रूठना नहीं है। कोई से अनवनत हो तो भी पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए। पढ़ाई से लड़ने-झगड़ने का ताल्लुक नहीं। पढ़ेंगे-लिखेंगे होंगे नवाब। लड़ेंगे- झगड़ेंगे तो नवाब थोड़े ही बनेंगे। वह तो फिर तमोप्रधान चलन हो जाती है।” (मु. 5.3.69 पृ.2 आदि) • “तुम बच्चों को रेगुलर बनना है। बापदादा रेगुलर किसको कहते हैं। रेगुलर उनको कहा जाता है जो सुबह से लेकर रात तक जो भी कर्तव्य करता है वह श्रीमत के प्रमाण करता है। सब में रेगुलर रेगुलर चीज़ अच्छी होती है। जितना जो रेगुलर होता है उतना दूसरों की सर्विस ठीक कर सकता है।” (अ.वा. 23.10.70 पृ. 316 अंत) • “जहाँ तक जीना है अमृत पीना है, शिक्षा को धारण करना है। अपसेन्ट तो कब न होना चाहिए। यहाँ-वहाँ से ढूँढकर, कोई से लेकर भी मुरली पढ़नी चाहिए। बाबा जानते हैं- बहुत बच्चे हैं, अच्छे-2 नंबरवन में जिनको गिनते हैं, वह भी मुरली मिस कर देते हैं। अपना ही घमण्ड आ जाता है। अरे, भगवान बाप पढ़ाते हैं, (उ) समें तो एक दिन भी मिस न होना चाहिए। ऐसी 2 गुह्य प्वॉइन्ट्स निकतली (निकलती) हैं, जो तुम्हारा वा किसका भी कपाट खुल सकते हैं।” (मु.16.6.68 पृ.3 आदि)

“यहाँ के नम्बरवन रेगुलर और पंक्चुअल गॉडली स्टूडेन्ट वहाँ भी साथ-2 पढ़ेंगे; क्योंकि ब्रह्मा बाप नम्बरवन गॉडली स्टूडेन्ट है।” (अ.वा. 8.1.79 पृ.189 मध्य ।

स्वयंवरपूर्व महाराजकुमार श्री कृष्ण और महाराजकुमारी श्री राधे

      इसके बाद जो दूसरी मोटी -2 लिखत नीचे लिखी हुई है- ‘स्वयंवरपूर्व महाराजकुमार श्री कृष्ण और महाराजकुमारी श्री राधे । इस लिखत से भी यह साबित होता है कि ये कुमार-कुमारी (रा.कृ.) किसी महाराजा के बच्चे हैं। वो महाराजा पहले ही तैयार हो चुका है जो सारे विश्व का महाराजा है। तब तो यहाँ लिखा है- महाराजकुमार श्री कृष्ण और महाराजकुमारी श्री राधे । बाबा ने मुरली में कहा है- • “प्रिंस का ज़रूर राजा-महाराजा पास ही जन्म होगा।” (मु. 21.4.71 पृ.3 मध्य)

     इससे यह भी बात साबित होती है कि इन कुमार कुमारी से पहले ही कोई इनके माँ-बाप हैं जो विश्व के महाराजा बन चुके हैं। ये महाराजा के पुत्र हैं यानी इनके माँ-बाप पहले से ही महाराजा महारानी हैं। वो महाराजाई किससे प्राप्त की? महाराजाई का टाइटिल उन्होंने डायरैक्ट परमपिता परमात्मा शिव ज्योतिबिन्दु से अपने पुरुषार्थ के आधार पर प्राप्त किया। उनको विश्व की महाराजाई पद देने वाला कोई दूसरा साकार व्यक्तित्व नहीं होता। यानी कोई साकार व्यक्ति नहीं होता है जो उनको विश्व की महाराजाई दे। वो अपने पुरुषार्थ और परमपिता परमात्मा की याद की शक्ति के आधार पर विश्व की महाराजाई प्राप्त करते हैं। जबकि रा. कृ. को सतयुगी राजाई किससे मिलती है? डायरैक्ट परमपिता परमात्मा से नहीं मिलती है। ल. ना. देवताओं से राजाई की प्राप्ति होती है। रा.कृ. जो सतयुगी महाराजन बनने वाले हैं वो डीग्रेड (कम कला वाले) हो गए। क्यों? क्योंकि वो संगमयुगी ल.ना. डायरैक्ट परमपिता परमात्मा से प्राप्ति करते हैं और रा. कृ. उन ल. ना. यानी देवताओं से प्राप्ति करते हैं। परमात्मा से जो प्राप्ति होगी और देवताओं से जो प्राप्ति होगी उसमें अंतर तो होगा ना! यह अंतर यहाँ चित्र में दिखाया गया है।

इसी जन्म में, इसी शरीर से कंचन काया

     इस चित्र का दूसरा प्वाइंट है कि ल.ना. जो संगमयुग में नर से नारायण और नारी से लक्ष्मी बनते हैं, ये नर से प्रिंस बनने वाले नहीं हैं। नर से प्रिंस तो सतयुग में जाकर ब्रह्मा दादा लेखराज बनते हैं और नारी से प्रिंसेज ओमराधे मम्मा सरस्वती जाकर बनती हैं। बाकी जो यहाँ डायरेक्ट नर से नारायण और नारी से लक्ष्मी बनते हैं जिन्हें राम-सीता वाली आत्माएँ समझ लिया जाए, तो वो आत्माएँ यहाँ इसी जन्म में, इसी शरीर से पुरुषार्थ करके कंचन काया प्राप्त करती हैं। रा.कृ. वाली आत्माएँ जो सतयुग में जन्म लेंगी वो तो अपने माँ-बाप से जन्म लेकर कंचनकाया प्राप्त करेंगी। वो कोई बड़ी बात नहीं; लेकिन यहाँ बड़ी बात यह है कि जो सुप्रीम सर्जन बाप है उसकी दी हुई नॉलेज के आधार पर वो इसी जन्म में, अपने इसी शरीर से ऐसा पुरुषार्थ करते हैं कि शरीर छोड़े बगैर शरीर के पाँच तत्वों को कनवर्ट करते हैं, रीजिन्यूनेट करते हैं। • “कोई ऊपर से नई आत्माएँ तो नहीं आई, जिनको भगवान ने राजाई दे दी। नहीं। इन्हीं को पुराना से नया बनाया हुआ है। जिसको रिज्युविनेट वा कायाकल्पत भी कहा जाता है।” (मु. 11.3.73 पृ.2 मध्य) अपने शरीर के पाँच तत्वों को ही रीजिक्यूनेट नहीं करेंगे बल्कि सारी सृष्टि की जो भी सामूहिक प्रकृति (नेचर) है, उसको भी सामूहिक योगबल से चेंज करने के ये निमित्त बनते हैं; क्योंकि बाबा ने अ.बा. में बोला है कि “प्रकृति को जब तक परिवर्तन नहीं किया है तब तक समझो कि विश्व का परिवर्तन नहीं हो सकता।” • “प्रकृति को भी पावन बनाना है, तब ही विश्व परिवर्तन होगा।” (अ. वा. 25.5.73 पृ.72 अंत)

     प्रकृति माना पाँच तत्व तो आत्मा के सम्पर्क में रहने वाले शरीर के पाँच तत्व पहले सुधरेंगे या दुनियावी पाँच तत्व पहले सुधरेंगे? आत्मा के पहले सम्पर्क में कौन सी चीज़ है? शरीर तो शरीर के 5 तत्वों का परिवर्तन होता है। अरस परस है दुनिया भी धीरे-धीरे चेंज होती है। दुनिया के पाँच तत्व भी चेंज होते हैं; लेकिन उनका आधार है- आत्मा से सम्बंधित शरीर का परिवर्तन। शरीर के 5 तत्वों का भी परिवर्तन होता है। यह कैसे होता है, क्या तरीका है? वो समझने की चीज़ है। बाबा ने मुरलियों में बताया है कि “मैं सर्जन हूँ।” “ऐसी कोई बात नहीं जो तुमसे लागू नहीं होती है। तुम सर्जन भी हो, सर्राफ भी हो, धोबी भी हो सब खासियतें (विशेषताएँ) तुम्हारे में आ जाते हैं।” (मु. 14.4.68 पृ.3 अंत) • “तुम वण्डरफुल हो ना। सारे भारत को ही तुम निरोगी बनाते हो वह डॉक्टर लोग भी तुम्हारे आगे क्या हैं।” (मु. 23.2.68 पृ.4 अंत)

     तो जब परमात्मा खुद सर्जन बनकर आएगा तो दुनियावी सर्जन के मुकाबले तो अच्छी ही प्लास्टिक सर्जरी करेगा ना ! उन सर्जन द्वारा की हुई प्लास्टिक सर्जरी तो इसी जन्म में खराब हो जाती है। दुबारा तिबारा करानी पड़ती है। परमात्मा तो ऐसा सर्जन होना चाहिए जो एक स्थायी काम करके जाने वाला हो। बाबा भी कहते हैं. 21 जन्मों के लिए तुमको निरोगी काया देता हूँ।” वास्तव में बाबा ऐसा सर्जन है जो 21 जन्मों के लिए तो हमारी निरोगी काया बनाता है; लेकिन योगबल के आधार पर इस जन्म के लिए भी हमारी निरोगी काया बनती है। उसके लिए धोबी का भी मिसाल दिया है कि “मैं ऐसा वंडरफुल धोबी हूँ जो तुम्हारा शरीर रूपी वस्त्र और शरीर रूपी नैया दोनों को पार ले जाने वाला एक खिवैया या धोबी हूँ।” “नानक ने भी कहा न- मूत पलीती कपड़ धोय। लक्ष्य सोप है न! बाबा कहते हैं मैं कितना अच्छा धोबी हूँ। तुम्हारे वस्त्र (आत्मा और शरीर) कितना शुद्ध बनाता हूँ। ऐसा धोबी कब देखा?” (मु. 21.5.64 पृ.3 अंत) • “वह बाप भी है, नइया को पार लगाने वाला खेवइया भी है। … क्या शरीर को ले जायेंगे? अभी तुम बच्चे समझते हो बरोबर हमारी आत्मा को पार ले जाते हैं। … इनको वस्त्र भी कहते हैं, मइया भी कहते हैं।” (मु. 3.11.68 पृ.1 मध्यादि, 2 मध्यांत)

     धोनी है तो दुनियावी धोबियों से तो अच्छा ही होगा ना! दुनियावी धोबी भी ऐसे तो नहीं कहते कि तुम कपड़ा डाल जाओ और अगले जन्म में हमसे कपड़ा ले लेना। वो भी इसी जन्म में तो क्या 2-4 दिन के अंदर ही कपड़ा धोकर के देते हैं ना! चलो, यह स्थूल कपड़ा नहीं है, यह तो 63 जन्मों का बिगड़ा हुआ शरीर रूपी वस्त्र है। तो परमात्मा बाप यह गारन्टी लेते हैं; यह वंडरफुल धोबी इसी बात का है कि हमारे वस्त्र को ऐसा धोता है जो 21 जन्म तक यह निरोगी बना रहे। मतलब यह है कि वंडरफुल धोनी इस बात में नहीं है कि वो कोई अगले जन्म में कपड़ा धोकर के देगा और इस जन्म में हमारा कपड़ा फाड़ देगा, नहीं।

     ऐसे तो वे ब्रह्माकुमार कुमारी जिन्होंने ब्रह्मा का लक्ष्य ले रखा है कि ब्रह्मा ही हमारा गुरु है, ब्रह्मा ही हमारा सब कुछ है। इससे जास्ती बढ़कर हमारा पुरुषार्थ कुछ नहीं हो सकता। जिन्होंने नर से प्रिंस बनने का लक्ष्य ही अपूरा लिया हुआ है उनके जीवन के लिए तो यह बात सम्भव है कि उनको शरीर छोड़ना पड़े; लेकिन बाबा ने हमें वह गीता वर्णित सुप्रसिद्ध लक्ष्य दिया है- नर से नारायण बनने का तो नारायण की काया तो जरूर कंचन काया होती है। इसी जन्म में हमारी कंचनकाया परमात्मा बनाता है। उसे बनाने का प्रोसीजर क्या होगा? वो भी बताया कि “सर्प का मिसाल तुम बच्चों का है।” वो तो सन्यासी लोग ऐसे ही झूठा उदाहरण उठा लेते हैं, उदाहरण देते हैं; लेकिन वास्तव में तुम बच्चों की बात है। जैसे सर्प अपनी केंचुली त्यागता है। वैसे तुम बच्चे भी अपनी पुरानी खल को त्याग देंगे और नई खल धारण करेंगे। शरीर रूपी वस्त्र ही खत है। ब्रह्मा बाबा की तरह यह शरीर रूपी वस्त्र, खल हम त्याग कर कोई हमेशा के लिए नहीं छोड़ देंगे। वास्तव में जो सर्प का मिसाल है वो एक्युरेट मिताल है। सर्प जब अपनी केंचुल त्यागता है तो कोई मर नहीं जाता है, सर्प जिंदा रहता है। वो अपने जीवन में तीन-चार बार खल त्याग करता है तब मरता है। • “बाप बैठ अर्थ समझाते हैं। जैसे सर्प पुरानी खल आपे ही छोड़ देते हैं और नई खल आ जाती है। उनके लिए ऐसे नहीं कहेंगे एक शरीर छोड़ दूसरे में प्रवेश करती है। नहीं। खल बदलने का एक ही सर्प का मिसाल है। वह खल उसको देखने में आते हैं। जैसे कपड़ा उतारा जाता है वैसे सर्प भी खल छोड़ देता। दूसरी मिल जाती है। सर्प तो जीता ही रहता है। ऐसे भी नहीं सदैव अमर रहता है। दो/तीन खल बदली कर फिर मर जायेंगे।” (मु.18.7.70 पृ.2 अंत) गीता में भी आया है:-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 2/22

     जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नए शरीरों को ग्रहण करता जाता है। 

     यह धारणा सर्वथा गलत है कि आत्मा के सतोप्रधान बनते ही मृत्यु हो जावेगी। नहीं। सतोप्रधान आत्मा बुद्धियोग द्वारा इस शरीर से डिटैच हो जावेगी। शिवबाबा ने 25.8.74 पृ.2 की मुरली आदि में कहा भी है- “ऊपर जाना माना मरना, शरीर छोड़ना। मरना कौन चाहते ? यहाँ तो बाप ने कहा है तुम इस शरीर को भी भूल जाओ। जीते जी मरना तुमको सिखलाते हैं।” जो जीते जी मरने की कला नहीं सीखेंगे, उन्हों की ही शारीरिक मृत्यु होनी है। वे स्वर्ग में जीते जी जाने के काबिल नहीं। अमरनाथ बाप के हम डायरैक्ट बच्चे तो मृत्यु पर भी विजय पाकर इच्छा मृत्यु धारण करने वाले बनते हैं। बाबा ने 8.10.68 पृ.1 की मु. के मध्यांत में कहा भी है- “यह तो बहुत ही बड़ा वैल्युएबल शरीर है। इस शरीर द्वारा ही आत्मा को बाप से (विश्व की बादशाही की) लॉटरी मिलती है।” “इस योगबल से तुम कितने कंचन बनते हो। आत्मा और काया दोनों कंचन बनती है।” (मु.5.12.68 पृ.1 अंत)

कंचनकाया बनने की प्रक्रिया

कंचनकाया बनने की प्रक्रिया

     जैसे कि सृष्टि चक्र में बताया कि मन-बुद्धि रूपी आत्मा को तमोप्रधान से सतोप्रधान बनने में चार आयामों से गुजरना पड़ता है। चार बार शूटिंग पीरियड में मानसिक रूप से अप एण्ड डाउन में आना पड़ता है- सतयुगी शूटिंग, त्रेतायुगी शूटिंग, द्वापरयुगी शूटिंग और कलियुगी शूटिंग। इन चार युगों की शूटिंग में चार कल्प समाए हुए हैं, उन चार युगों की शूटिंग में आत्मा अप में भी जाती है और डाउन में भी आती है। तो जैसे आत्मा का संशोधन करने के लिए ये 3/4 आयाम हैं जिनसे गुजरना पड़ता है, ऐसे ही शरीर का परिशोधन करने के लिए भी शरीर को 3/4 आयामों से गुजरना पड़ता है। एक बार में ही कंचनकाया नहीं होगी। पहले तो मन-बुद्धि रूप आत्मा बीज सतोप्रधान बनती हैं; क्योंकि जब तक आत्मा सतोप्रधान न बने तब तक शरीर सतोप्रधान नहीं बन सकते। आत्मा के लिए बाबा ने बोला है कि “तुम्हारी आत्मा कंचन बनती जावेगी और शरीर सड़ते जायेंगे।” कब तक? तब तक सड़ते जायेंगे जब तक यह 500 करोड़ की विरोधी संस्कारों और वायब्रेशन वाली दुनिया मौजूद रहेगी। जब 500 करोड़ की दुनिया खलास हो जाएगी, जब सिर्फ एक जैसी जाति की देवता धर्म की पक्की आत्माएँ इस संसार में बचेंगी तब एक वायब्रेशन हो जाएगा। और वायब्रेशन एक होने से उसमें संगठन का बल पैदा होगा, वायब्रेशन में परिवर्तन आएगा उससे (एक संगठित मानवीय) प्रकृति में भी परिवर्तन आना शुरू हो जाएगा। • “विनाश होने बाद थोड़े बचते हैं। उनमें पुण्यात्मा भी रहते हैं। फिर हिसाब-किताब चुक्तू कर सतयुग में तो सब पावन होंगे। संगम पर कुछ पतित कुछ पावन रहते हैं, फिर पतित खलास हो फिर पावन ही पावन रहेंगे।” (मु. 7.6.64 पृ.4 आदि) तो 2036 के बाद (आस-पास) ब्रह्मा की सारी सृष्टि का विनाश होगा, विरोधी आत्माएँ वापस परमधाम पहुँच जाएँगी।

      सृष्टिचक्र के चित्र में बताया था कि (2036) के बाद या उसके आसपास आखिरी और समूल ऐटमिक विस्फोट होने के कारण पृथ्वी का बैलेंस बिगड़ जाएगा, बड़े-2 भूकम्प आएँगे, डाँवाडोल होने से पृथ्वी की धुरी चेंज होगी। उत्तरीय ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर जो मीलों ऊँचे बर्फ के पहाड़ हैं वो पिपलेंगे। समुद्र का धरातल ऊँचा उठ जाएगा। जो भी बड़े 2 महाद्वीप हैं वो सब समुद्र के अंतराल में समाय जाएँगे। उस समय ऐटमिक विस्फोट से जो गर्मी बढ़ेगी उससे समुद्र का पानी खीलकर भाप बनकर ऊपर उड़ेगा तो सृष्टि पर कई दिनों तक जो मूसलाधार बरसात होगी उसके प्रभाव से सृष्टि का वातावरण जो ऐरमिक विस्फोट होने से गर्म हो गया था वो एकदम ठंडा हो जाएगा। इस सृष्टि पर चारों तरफ एक बार बर्फ ही बर्फ का वातावरण बन जाएगा। बर्फ में दबना भी दो तरह से है कुछ आत्माओं के लिए संकल्प जाम हो जाए, बिन्दु बन जाए नो संकल्प एट ऑल लगातार हो जाए। और दूसरा है- शरीर बर्फ में जाम हो जाए।

     थोड़ी-सी बीजरूप आत्माएँ जो इस सृष्टि पर बचेंगी वो आत्माएँ परमात्मा की याद में इतनी गहरी होंगी कि जब इस मानसी सृष्टि पर चारों तरफ बर्फ ही बर्फ जैसी संकल्पों की जाम होगी तो उसमें उनको समा जाना पड़ेगा। श्रेष्ठ पुरुषार्थी आत्माओं की पहले उपराम स्टेज होगी फिर बाद में नम्बरवार बर्फ में दुवेंगे। उस बर्फ में से वे । श्रेष्ठ पुरुषार्थी आत्माएँ अपने-2 शरीर को त्याग कर मन-बुद्धि से परमधाम जाएँगी। बाकी उनका शरीर सुरक्षित रहेगा और अपने 2 टाइम पर नं. बार पुरुषार्थ अनुसार अपने शरीरों में वापस आयेंगी ‘अंत मते सो गते’ के अनुसार जब वापस आयेंगी, तो उनकी आत्मिक स्टेज परिषक बनी हुई होगी। गीता में भी आया है-

                               यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते फलेवरम् । तं तमेवेति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ 8/6

     हे कुन्ती माता के पुत्र ! अथवा जिस 2 भाव को भी स्मरण करता हुआ, अन्तकाल में शरीर को त्यागता है, सदैव उसी भावना से युक्त हुआ उस 2 भाव को ही पाता है;

     संगमयुग तो 100 साल का बताया गया है। सन् 2036-37 तक संगमयुग के 100 साल पूरे होने तक कोई 2 आत्माओं का पुरुषार्थ चलता रहेगा। उस पीरियड में जो राधा-कृष्ण को जन्म देने वाली आत्माएँ हैं, विश्व में विश्व महाराजन और विश्वमहारानी साबित होने वाले होंगे वह सबसे कम समय में अपने योगबल के आधार पर अपने शरीर के पाँच तत्वों को 18 वर्ष के अंदर ही चेंज कर देंगे। उस 18 वर्ष में (2018-2036 तक) उन्हें 3/4 आयामों से गुजरना पड़ेगा। एक बार में ही शरीर पूरा कंचनकाया 100 परसेंट नहीं बनेगा। जैसे कोई व्यक्ति लम्बे समय बीमार होता है तो उसकी ऊपर की त्वचा उतर जाती है और नई त्वचा आ जाती है तो ऐसे ही होगा। एक बार परिवर्तन, दूसरी बार परिवर्तन, तीसरी बार परिवर्तन और चौथी बार में पूरी कंचन काया बन जाती है तो पहला इश्यू रा.कृ. होंगे और वो कोई अकेले तो पैदा नहीं होंगे और भी बच्चे उस समय नम्बरवार पैदा होना शुरू होंगे। साढ़े चार लाख जो पुरुषार्थी बीजरूप आत्माएँ हैं, जो अपने शरीर को कंचन काया बनाने वाले होंगे वो परिपक्व स्टेज में तैयार हो जायेंगे और रा.कृ. जैसे साढ़े चार लाख बच्चों को नम्बरवार जन्म देने के निमित्त बनेंगे।

     “अभी तो दुनिया में 500 करोड़ मनुष्य हैं। सतयुग में जब इन ल. ना. का राज्य होता है तो वहाँ 9 लाख होते हैं।” (मु. 4.9.69 पृ.3 आदि) • “पहले-2 है देवी-देवताओं की संख्या। पहले-2 आदि सनातन देवी-देवता धर्म वाले ल. ना. आयेंगे अपनी प्रजा सहित। और कोई प्रजा सहित नहीं आते। वो एक आवेगा, फिर तीसरा आवेगा। (मु. 17.5.65 पृ.1 मध्यांत)

     इस तरह ऐसी कंचनकाया से कंचनकाया जैसे शरीरधारी बच्चों की पैदाइश होगी। तो ये ल.ना. जैसे श्रेष्ठ पुरुषार्थी इसी जन्म में इसी शरीर को कंचनकाया बनाने वाले साबित हो जाते हैं। बाकी रा.कृ. जैसी आत्माएँ तो अगला जन्म लेकर अपने माँ-बाप के पुरुषार्थ के आधार पर कंचन काया की प्रॉपर्टी प्राप्त करती हैं। अपने पुरुषार्थ से कंचन काया बनाती नहीं हैं।

     .फेल होने वाले राम-सीता को रा. कृ. का दास-दासी बनना पड़ेगा ? इस ल. ना. के चित्र में समझने का जो अगला प्रकरण है वो यह है कि ल. ना. यहीं बनना है, यहीं कंचनकाया बनानी है वो तो ठीक है; लेकिन जिनको यहीं कंचनकाया बनानी है उनके बारे में ब्राह्मणों की दुनिया में एक अपवाद चल गया है कि राम-सीता तो फेल हो गए। मुरली में बाबा ने बोला हुआ है-“राम-सीता फेल हुए। तो जो फेल होने वाले राम-सीता हैं उनको रा.कृ. का दास-दासी बनना पड़ेगा।” • राम (सीता) को भी सतयुग के पहले ल. ना. का दासदासी बनना पड़े क्योंकि ल.ना. फुल पास हुए। यो फेल हुआ (यज्ञ में); इसलिए उनको क्षत्रिय कहते हैं।” 20.5.64 पृ.3 अंत) • “भल पहले अनपढ़, पढ़े-लिखे आगे भरी ढोते हैं; महाराजा महारानी तो बनेंगे न।” (मु. 8.8.73 पृ.1 मध्य) (मु. परन्तु

 

     पहली बात तो यह है कि सतयुग में प्रकृति दासी होती है वहाँ कोई दास-दासी रखने की जरूरत नहीं है; क्योंकि वहाँ तो सब श्रेष्ठ आत्माएँ हैं। यह दास-दासी बनने वाली बात यहाँ संगमयुग के अंदर की है। सतयुग में दास-दासी की बात नहीं है। संगमयुग में कुछ आत्माएँ ऐसी हैं जो माँ-बाप के रूप में दास दासी का पुरुषार्थ करने – के कारण दास दासी साबित हो जाती है; क्योंकि दुनिया में भी जो बच्चे होते हैं उनकी परवरिश करने के कारण माँ-बाप को फर्स्ट क्लास दास-दासी कहा जाता है। बच्चों को जन्म देना, 9 महीने तक पेट में पालन करना, उनको पढ़ाना-लिखाना, उनकी टट्टी पेशाब की सफाई करना, पालना करना, बड़ा करना और जब बड़े हो जाएँ तो सारी जिंदगी की कमाई उन बच्चों को सौंप देना, इससे बढ़कर बढ़िया दास दासी और कौन मिलेंगे? बाबा भी मुरलियों में कहते हैं-“बच्चे आई एम बोर मोस्ट ओरियेन्ट सर्वेन्ट ।” • “बाप बच्चों का ओबीडियेंट सर्वेट होता है ना। बच्चों को पैदा कर, उनकी सम्भाल, पढ़ा…, बड़ा बनाकर, फिर बूढ़ा होता है तो सारी मिल्कियत बच्चों को देकर खुद……… वानप्रस्थी बन जाते हैं। …… तो बाप माँ बच्चों के सर्वेट ठहरे ना।” (मु.16.10.68 पृ.1 अंत)

 

     तो शिवबाबा ही जब हम बच्चों का मोस्ट ओविडियेन्ट सर्वेन्ट बनकर आवा है तो सतयुग में हम (माँ-बाप अपने बच्चों के दास दासी बन जाएँगे तो यह क्या बड़ी बात हुई? दुनिया में यह परम्परा तो सतयुग में भी रही, त्रेता में भी रही, द्वापर में भी रही और कलियुग में भी है। यह कोई हेय (नीची) बात नहीं है कि राम-सीता तो दास-दासी बनेंगे। बाबा तो बेहद की बातें बेहद के रूप में करते हैं। उसके हद का अर्थ समझ लेने के कारण वो घृणा की दृष्टि पैदा हो जाती है। तो राम-सीता वाला आत्माओं ने तो नई सृष्टि में (राधा-कृष्ण जैसे बच्चों को जन्म देने का श्रेष्ठ पुरुषार्थ किया। यह कार्य राम-सीता जैसी 4/5 लाख आत्माएँ जो श्रेष्ठ पुरुषार्थ करती हैं उसके आधार पर यह सृष्टि चलती है। जैसे बीज अविनाशी होता है वैसे ही ये साढ़े चार लाख आत्माएँ पूरे 84 जन्म लेने वाले अविनाशी बीज हैं। बीज को ही बाप कहा जाता है। ये पूर्वज / पिता स्वरूप आत्माएँ जो राधा-कृष्ण जैसे बच्चों को जन्म देती हैं वो माता- पिता के रूप में दास-दासी बनती हैं। वास्तव में उनको सतयुग में जाकर दास-दासी का कर्म करने की दरकार नहीं है। बाबा ने भी मुगलियों में इस तरह यह बात बीटी हुई है कि “माँ-बाप जैसे बच्चों के दास दासी बन जाते हैं।” तो ल.ना के चित्र में एक यह प्वाइंट भी हल होता है कि नर से ना. और नारी से ल. बनने वाली राम-सीता की आत्माएँ माँ-बाप के रूप में दासदासी बनेंगे। वास्तव में उनको सतयुग में दास-दासी बनने की दरकार नहीं है।

राधा-कृष्ण का जुड़वा बच्चों के रूप में जन्म

     इस ल.ना. के चित्र में विशेष समझने का अगला प्वाइंट है कि सतयुग में जो रा.कृ. जैसे बच्चे पैदा होंगे वो दर्विस बच्चों के रूप में जन्म लेंगे। मतलब भाई-बहन की पैदाइश साथ 2 होगी। बाबा ने मुरली में भी कहा है, “सतयुग में तुम ही आपस में भाई-बहन थे। दूसरा कोई सम्बंध नहीं।” (मु. 4.5.74 पृ.3 अंत) इसका प्रूफ इस चित्र में भी दिया गया है। आप रा.कृ. के चेहरों को बड़े ध्यान से देखिये। क्या चेहरों में कुछ समानता दिखाई पड़ती है? दी सेम चेहरे हैं या नहीं हैं? जरूर हैं। आज की दुनिया में भी जो भी टूर्विस बच्चे पैदा होते हैं उनके शरीर में, उनके चेहरों में बहुत कुछ समानता देखने में आती है; क्योंकि समान पुरुषार्थी रहे हैं। थोड़ा-सा अंतर जरूर रह जाता है; क्योंकि हर आत्मा के पुरुषार्थ में थोड़ा तो अंतर होगा। तो संगमयुग में मम्मा और बाबा (रा.कृ.) के पुरुषार्थ में थोड़ा-सा अंतर रहा था। बाकी दोनों समान पुरुषार्थी थे। इसलिए सतयुग में भी जाकर साथ 2 जन्म लेते हैं, साथ2 शरीर छोड़ते हैं। एक जैसा चेहरा-मोहरा मिलता है। इस बात को सुनकर कोई2 ब्रह्माकुमार कुमारी जिनमें अभिमान ज्यादा होता है वो कहते हैं-अरे! ये तो बड़ी छी बात सुनाते हैं कि यहाँ हम भाई-बहन बनकर पैदा होने और फिर भाई-बहन ही बड़े होकर शादी कर लेंगे।

     अरे, सतयुग में शादमाना वगैरह कुछ नहीं होता। शादमाना, शादी करना, त्योहार करना, फंक्शन करना वे सब सतयुग में करने की दरकार नहीं है। यहाँ तो – रोज ही शादमाना है, रोज ही फंक्शन है। फंक्शन तो इस दुनिया में किया जाता है। जहाँ आदमी दुःखी हो रहा है, तो एक दिन कोई न कोई त्योहार मना लिया, खुशी मना ली। सतयुग में अलग से कोई ऐसा दिन तैनात नहीं किया जाता, कोई ऐसा कोरोनेशन नहीं होता। शास्त्रों में तो यहाँ संगमयुग की बात है कि स्वयंवर हुआ। स्वयंवर का मतलब है- स्वयं वरण करना वो तो बता ही दिया संगमयुगी रा.कृ. अलग हैं और सतयुगी रा. कृ. अलग हैं। संगमयुगी रा. कृ. तो वास्तव में प्रवेशता की बात है, जिनका कलियुगी कैसी जरासिंधी के साथ शास्त्रों में वर्णन है। सतयुग में तो फंसी- जरासिंधी कोई होते ही नहीं हैं। वहाँ जो चित्र है उससे भी साबित होता है कि रा.कृ. युगलिया बच्चे हैं। “बच्चा किस आयु में आवेगा। वहाँ तो सभी रेग्युलर चलता है ना। वह तो आगे चल कर मालूम पड़ेगा। ऐसे तो नहीं 15/20 वर्ष में कोई बच्चा होगा, जैसे कि यहाँ होता रहता है। नहीं। वहाँ आयु ही 150 वर्ष होती है, तो बच्चा कब आवेगा। जब फुल जवानी होती है। आधा लाइफ से थोड़ा आगे । उस समय बच्चा आता है; क्योंकि वहाँ आयु बड़ी होती है। एक ही तो बच्चा आना है। फिर बच्ची भी आनी है। कायदा होगा। पहले बच्चा या बच्ची की आत्मा आती है। विवेक कहते हैं पहले बच्चे की ही आत्मा आनी चाहिए। पहले मेल, पीछे फीमेल” (मु. 29.6.68 पृ.1 अंत)

सतयुग में योगबल से बच्चों की पैदाइश

सतयुग में योगबल से बच्चों की पैदाइश

      इसके अलावा बाबा ने मुरली में बोला हुआ है कि “कृष्ण को राधा का स्वामी नहीं कहेंगे •”राधा कुमारी है, कृष्ण कुमार तो कृष्ण (को) स्वामी कैसे कहेंगे? जब स्वयंवर बाद ल. ना. बनें तब स्वामी कहा जाए।” (मु. 29.9.77 पृ.2 मध्य) वो जब हैं ही आपस में भाई-बहन तो स्वामी कहाँ हुए? भाई-बहन ही बड़े होते हैं तब उनके दृष्टियोग से, मुख के प्यार से संतान पैदा होती है। उसमें कोई भ्रष्ट इंद्रियों का कनेक्शन तो है नहीं। वो तो योगबल की बात है। श्रेष्ठ इन्द्रियों के बल की बात है। मन-बुद्धि के आकर्षण की बात है। योगबल में किसी प्रकार का देहअभिमान न होने के कारण उनका आपसी प्यार भाई-बहन जैसा ही रहता है। उसमें कोई ऐसी मूतपलीती छी2 बात नहीं है। कि भाई-बहन ही आपस में बड़े होकर पति-पत्नी बनेंगे, यह तो बहुत गन्दी बात है। देहअभिमान होने के कारण लोगों को ऐसा बुद्धि में आता है।

     • “इस समय का प्यार भी अशुद्ध है। देवी-देवताओं का प्यार तो बहुत शुद्ध होगा न । मनुष्य समझते है प्यार विकार का ही होता है। परन्तु प्यार तो अनेक प्रकार के होते हैं। मोर डेल का भी प्यार है न। आंसू का जल है जिससे बच्चे का शरीर बनता है। एक बूँद से जानवर का गर्म हो सकता है तो पता नहीं और भी कोई प्यार की रीति हो। तो ऐसे क्यों कहना चाहिए देवताएँ ज़रूर विकार से ही जन्म लेते हैं।” (मु.15.9.73 पू.1 मध्य)

     देवताओं के लिए ऐसे नहीं कहेंगे कि वो भ्रष्टाचार से पैदा होते हैं। देवताएँ भ्रष्टाचार से पैदा नहीं होते, उनकी पैदाइश तो मुख के प्यार से होती है। जैसे मोर- मोरनी का आज भी मिसाल दिया जाता है। आज भी हमारे भारत देश में मोर राष्ट्रीय पक्षी माना जाता है। मोर का पंख कृष्ण के मुकुट में लगाया जाता है। यह उनकी जिम्मेवारी का ताज हुआ। कौन-सी जिम्मेवारी ? भ्रष्टाचारी को श्रेष्ठाचारी बनाना । खुद भी पहले श्रेष्ठाचारी बनते हैं और दूसरों को भी नं. बार श्रेष्ठाचारी बनाते हैं। तो यह यादगार बनी हुई है कि देवताएँ श्रेष्ठाचारी थे। भ्रष्ट इन्द्रियों का आचरण नहीं करने वाले थे। भ्रष्ट इन्द्रियों की पैदाइश नहीं करते थे। वहाँ तो विकार होते ही नहीं। कौन-से कार्य नहीं होते? विपरीत कार्य वि+कार, दूसरों को दुःख देने का कार्य यहाँ होता ह नहीं। वो है ही पावन दुनिया। ऐसे नहीं कि सतयुग में काम-विकार नहीं होता है। काम माने कामना, इच्छा। तो ऐसा भी नहीं है कि सतयुग में इच्छा नहीं होती है। इच्छा तो होती है; लेकिन श्रेष्ठ इच्छा होती है। ज्ञान इन्द्रियों से सुख भोगने की इच्छा होती है। ज्ञान इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है वो सुख किसी प्रकार के दुःख की उत्पत्ति नहीं करता। वो भी कामना है। बिना कामना के सृष्टि की पैदाइश नहीं हो सकती है। इसलिए सतयुग के पहले जन्म से लेकर 84 वें जन्म तक कामना का रूप विकराल होता जाता है। सतयुग में दृष्टि मात्र की कामना होती है। इसलिए देवताओं के नयन बड़े2, शोभनिक, आकर्षक दिखाए जाते हैं। वो नेत्रों से ही सारा सुख भोगते हैं और नेत्रों के प्यार से ही बच्चों की पैदाइश होती है।

     हाँ, इच्छा मात्रम् की जो स्टेज है वो ब्राह्मणों की संगमयुगी दुनिया में जब स्वर्णिम दुनिया स्थापन होती है उस समय ल. ना. की और ल. ना. की जो भी प्रजा होगी, उस प्रजा की ऐसी स्टेज होती है कि देह का कोई भी सुख भोगने की इच्छा या कोई भी कामना नहीं होती है। इसलिए ल. ना. के चित्र को ध्यान से देखें- ल. ना. और रा.कृ. उनके बच्चे, जो सतयुग में जन्म लेंगे वो खड़े हुए हैं। दोनों में क्या अन्तर दिखाई पड़ता है? रा.कृ. एक-दूसरे को देख रहे हैं। उनका अव्यभिचारी प्यार है नयनों का और संगमयुगी ल. ना. एक-दूसरे को देख भी नहीं रहे हैं। दृष्टि मात्र से कोई भी ‘भोगने की इच्छा नहीं; क्योंकि जो नैन हैं वो भी देह का अंग है। देह का कोई सुख सुख लेने की इच्छा नहीं है। ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्टेज में टिके हुए हैं। तो ऐसा नहीं है कि काम विकार सतयुग में होता नहीं है। इसलिए रामायण में बोला है- “हुइहै काम अनंग, विनु वपु व्यापै सभ को”। बिना शरीर के सबको व्याप होगा। वो उच ते ऊँच संगमयुग की स्टेज दिखाई गई है, कि शरीर भल नहीं है; लेकिन वायब्रेशन में एक-दूसरे के प्रति प्यार समाया हुआ है। जो ल. ना. का प्यार है वो वायब्रेशन का प्यार है। देह का प्यार नहीं है।

      तुमसे पूछते हैं बच्चे कैसे पैदा होंगे? बोलो कृष्ण को सम्पूर्ण निर्विकारी कहते हो ना। तो जरूर सम्पूर्ण निर्विकारी का बच्चा होगा। योगबल से पैदाइश होगी। देखो पपीते का झाड़ है। मेल फिमेल एक दो के बाजू में होने से बच्चा पैदा हो जाता है। मेल फिमेल बाजू में न होंगे तो बच्चा होगा नहीं। वन्डरफुल बात है ना। तो वहाँ क्यों. नहीं योगबल से बच्चा हो सकता है। जैसे मोर डेल का मिसाल है। उनको कहते ही हैं नेशनल बर्ड । प्रेम के आँसू से गर्भ हो जाता है। यह विकार तो नहीं हुआ ना । (मु. 2.12.71 पृ.3 आदि)

     तो कामना अर्थात् काम विकार है या नहीं है? है, माने जब स्वर्ग में जायेंगे। स्व स्थिति में ग, ग माने गए। स्वर्ग का अर्थ क्या हुआ? स्व+ग, स्व स्थिति में जो गयावो जैसे स्वर्ग में गया। तो ऐसे स्वर्ग में जाने की स्टेज वालों को यो काम रूपी कुत्ता भी साथ में गया। सात्विक स्टेज में साथ जायेगा। ऐसे नहीं कि साथ में नहीं जायेगा। इसलिए शास्त्रों में दिखाया हुआ है कि पांडयों ने जब स्वर्गारोहण किया तो कुत्ता भी साथ में गया।

सतयुग में अनेक संबंध नहीं होंगे

अगली बात यह है कि बाबा ने बोला हुआ है कि सतयुग में अनेक सम्बन्ध नहीं होंगे। सम्बन्ध बहुत हल्के होंगे। माँ-बाप और भाई-बहन, दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं। “वहाँ यह साला, भान्जा, चाचा आदि बहुत (सम्बंध) नहीं होते। सम्बंध बहुत हल्के होते हैं।” (मु.12.10.74 पृ.3 मध्यांत

सतयुग में भी तुम ही आपस में भाई-बहन थे। दूसरा कोई सम्बंध नहीं।” (मु.22.5.69 पृ.3 अंत)

     इसका फाउन्डेशन बाबा ने यहाँ संगमयुग में डाल दिया है। हम ब्राह्मणों की दुनिया में हमारा आपस में क्या सम्बन्ध है? हमारा आपस में सम्बन्ध है- ब्रह्माकुमार- कुमारी भाई बहन और हमारे मात-पिता (जगतमाता और जगतपिता) का। बस, दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं। बाकी हमारे सब सम्बन्ध यहाँ कैन्सिल हो जाते हैं। हमारे यही संस्कार सतयुग में भी जायेंगे। वहाँ भी ढेर सम्बन्ध थोड़े ही होंगे। और जब वहाँ ढेर सम्बन्ध नहीं होंगे तो नाना, चाचा, मामा, काका, ताऊ- ये सम्बन्ध तो खलास हो जाते हैं। अगर वहाँ भी ये सम्बन्ध होने लगे तो वहाँ भी दुःख की दुनिया पैदा हो जाएगी। मान लो कृष्ण के माँ-बाप अलग राजाई के और राधा के माँ-बाप अलग हो तो कृष्ण की अलग से कोई बहन भी होगी और राधा का कोई भाई भी होगा। बाद में अगर उनका स्वयंवर हो, उनकी शादी हो तो फिर साला, भांजा भी होंगे फिर याचा, नाना भी बनेगा। फिर तो कलियुगी दुनिया के सारे ही सम्बन्ध शुरू हो गए। तो ऐसा वहाँ नहीं होता। चित्र में डेटिंग दिया हुआ है- महाराजकुमार श्री कृष्ण तथा महाराजकुमारी श्री राधे। तो क्या सतयुगी दुनिया में भी दो महाराजा होंगे? बाबा तो सारे विश्व में एक राज्य की स्थापना करने आया है। सारे विश्व में एक राजा, एक धर्म, एक मत, एक भाषा होगी ऐसा हमको लक्ष्य दिया है। तो क्या रा.कृ. के माँ- बाप अलग होंगे? विश्व में दो महाराजा होंगे क्या? नहीं, वास्तव में शिवबाबा जो नई दुनिया स्थापन करते हैं उसमें एक ही महाराजा और एक ही महारानी होगी। उन्हीं महाराजा महारानी से राधा-कृष्ण का जन्म टूर्विस रूप में, युगलिया बच्चों के रूप में होता है। उन्हीं महाराजा महारानी की तरह जितने भी युगल वहाँ होंगे उन सबके युगलिया बच्चे पैदा होंगे।

सतयुग में जनरेशन कैसे बढेगी?

     कोई प्रश्न करते हैं कि जब सबके युगलिया बच्चे ही पैदा होंगे, दो मां-बाप से दो बच्चों का ही जन्म होगा तो अगली पीढ़ी में जनरेशन बढ़ेगी कैसे? सतायुग की जनसंख्या कैसे बढ़ेगी? तो उसका परिहार बाबा ने मुरली में कर दिया है। बाबा ने बोला है कि जो रॉयल फैमिली होती है उसमें रॉयल्टी ज़्यादा होने के कारण दो ही बच्चे पैदा होंगे। कोई2 फोर्थ क्लास कैटेगरी की प्रजा भी होती है, उसकी संख्या भी ज़्यादा होती है। उनमें से कोई माँ-बाप से दो-दो युगलिया बच्चे भी पैदा होते हैं। एक ही जीवन में दो बार ट्विंस का जन्म होता है। एक ही माँ-बाप के सारे जीवन में चार2 बच्चे भी होंगे लेकिन सतयुग के आदि में वो कार्य कम तादाद में होगा और सतयुग के अंत में वो टूर्विस बच्चे दो2 बार जन्म लेने वाले ज्यादा तादाद में होंगे। इस तरह धीरे2 आबादी (पापुलेशन) बढ़ती है। “सतयुग, त्रेता में तो होता ही है एक बच्चा, एक बच्ची पिछाड़ी में करके थोड़ी गड़बड़ होती है। परन्तु विकार की बात नहीं।” (मु.12.12.76 पृ.1) • सतयुग में इतने बच्चे होते नहीं करके मुश्किल से कोई को 3 हो। पीछे आस्ते 2 बच्चे जास्ती होते हैं। (मु. 23.9.71 पृ.2 आदि)

सतयुग का वर्णन

सतयुग का वर्णन

     सतयुग का अर्थ ही है, जो भी प्रकृति के सुख हैं, आत्मा के सुख हैं, मनबुद्धि के सुख हैं, सम्बन्ध के सुख हैं, जो भी सुख होते यह सब हाजिर हैं। तो अब सोचो प्रकृति के सुख क्या होते हैं, मन का सुख क्या होता है, सम्बन्ध का सुख क्या होता है ऐसे इमर्ज करो जो भी आपको इस दुनिया में अच्छे से अच्छा दिखाई देता है वह सब चीजें पवित्र रूप में सम्पन्न रूप में, सुखदायी रूप में वहाँ होंगी। चाहे धन कहो, तन कहो, मन कहो, मौसम कहो, सब प्राप्ति जो श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ है उसको ही सतयुग कहा जाता है। एक बहुत अच्छे-ते-अच्छी सुखदायी सम्पन्न फैमली समझो; वहाँ राजा प्रजा समान होते हुए भी सारा राज्य परिवार के रूप में चलता है। यह नहीं कहेंगे कि यह दास-दासी हैं। नम्बर होंगे, सेवा होगी; लेकिन दासी है इस भावना से नहीं चलेंगे। जैसे परिवार के सब संबंध खुश मिज़ाज, सुखी परिवार, समर्थ परिवार, जो भी श्रेष्ठता है यह सब है। दुकानों में भी खरीदारी करेंगे तो हिसाब-किताब से नहीं। परिवार की लेन-देन के हिसाब से कुछ देंगे कुछ लेंगे गिफ्ट ही समझो। जैसे परिवार में नियम होता है किसके पास ज्यादा चीज़ होती है तो सभी को बाँटते हैं। हिसाब-किताब की रीति से नहीं कारोबार चलाने के लिए कोई को ड्यूटि मिली हुई है, कोई को कोई । जैसे यहाँ मधुबन में है ना। कोई कपड़े सम्भालता, कोई अनाज सम्भालता, कोई पैसे तो नहीं देते हो ना। लेकिन चार्ज वाले तो हैं ना। ऐसे वहाँ भी होंगे। सब चीजें अथाह हैं, इसलिए जी हाजिर। कमी तो है ही नहीं। जितना चाहिए जैसा चाहिए वह लो। सिर्फ बिज़ी रहने का यह एक साधन है। वह भी खेल-पाल है। कोई हिसाब-किताब किसको दिखाना तो है नहीं। यहाँ तो संगम है ना। संगम माना एकानामी। सतयुग माना-खाओ, पियो, मौज उड़ाओ। इच्छा मात्रम् अविद्या है। जहाँ इच्छा होती वहाँ हिसाब-किताब करना होता । इच्छा के कारण ही नीचे ऊपर होता है। वहाँ इच्छा भी नहीं, कमी भी नहीं। सर्व प्राप्ति हैं और सम्पन्न भी हैं तो बाकी और क्या चाहिए। ऐसे नहीं अच्छी चीज़ लगती तो ज़्यादा ले ली। भरपूर होंगे। दिल भरी हुई होगी। सतयुग में तो जाना ही है ना। प्रकृति सब सेवा करेगी। (अ.वा.14.1.84 पृ.16 अंत पृ.17 आदि)

“सिवाय एक धर्म के और कुछ भी न रहेगा। सिर्फ भारत ही रहेगा। अगर होंगे भी तो पहाड़ ही होंगे। शायद पहाड़ भी ढक जाते होंगे। अगर जलमई कहें तो क्या इतने2 उंचे2 पहाड़ियां हैं हिमालय आदि क्या यह सब चले जायेंगे? इतना पानी उंच चढ़ जावेगा। वहाँ तो तुमको कहाँ पहाड़ों आदि भी जाने की दरकार नहीं रहती। ऐसे नहीं तुम कहाँ घूमने जायेंगे। कहां भी जाने की दरकार नहीं। कोई भी एक्सीडेंट आदि नहीं।” (मु.9.2.68 पृ.2 मध्यांत)

“वह सृष्टि ही नई बन जायेंगी। वहां कितने अच्छे-2 फल-फूल होते हैं। हर चीज़ वहाँ अच्छी होती है। गंद करने, दुख देने वाली कोई चीज़ होती ही नहीं। इसलिए उनको स्वर्ग कहा जाता है। (मु.3.7.73 पृ.2 मध्य)

“नई दुनिया को ही टावर ऑफ सुख कहा जाता है। वहाँ तो मैले आदि कोई चीज़ होती ही नहीं। ऐसी मिट्टी ही नहीं होती तो (जो) मैला हो। न ऐसी हवाएँ ही लगती हैं, जो मकानों को ख़राब करें। कचड़ा वहाँ होता ही नहीं। स्वर्ग की तो बहुत महिमा है। इसके लिए पुरुषार्थ करना है।” (मु.9.2.68 पृ.3 मध्यादि)

‘पक्षी जनावर आदि सभी सतोप्रधान होते हैं। वह भी निडर बन जाते। यहाँ तो बुलबुल अथवा चिडियाँ मनुष्य को देखकर भागते हैं। वहाँ तो शेर बकरी को भी डर नहीं रहता। तो ऐसे-2 अच्छे पक्षी तुम्हारे आगे घूमते-फिरते रहेंगे। वह भी कायदेसिरे । ऐसे नहीं कि घर के अंदर घुस आयेंगे। गंद करके जाएँ, नहीं। बहुत कायदेवान दुनिया बन जाती है।” (मु. 12.8.68 पृ.1 मध्य )

“स्वर्ग में क्या 2 होगा। वहाँ थोड़े ईंट मिट्टी आदि होगी जिसमें पैर खराब हो। वहाँ तो जमीन पर भी घास के जैसे गलीचे बिछाये हुए होंगे। जिस पर चलते होंगे। प्रजा भी ऐसे ही चलती है। तुम बच्चे समझते हो हम नई दुनिया मे होंगे। जहाँ कोई किसम की मिट्टी आदि नहीं होंगी जो दाग हो। ऐसी कोई चीज़ न होंगी जो ठोकर आदि लगे। स्वर्ग में तो क्या लगा पड़ा होगा। कितनी रोशनी होंगी। बत्ती भी देखने में नहीं आवेंगी। सोझरा ही सोझरा होगा । “ ( मु.9.3.71 पृ.1 मध्यांत)

“तुम स्वर्ग में कितने सुखी रहते हो। हीरे जवाहरों के महल होते हैं वहाँ ।अमेरिका, रशिया आदि में कितने साहुकार हैं। परन्तु स्वर्ग जैसे सुख हो न सके। सोने की ईंटों के महल तो कोई बना न सके। सोने के महल होते ही है सतयुग में यहाँ सोना होता ही कहाँ ? वहाँ तो लेट्रिन में भी जवाहर लगे हुए होंगे। यहां तो सोना है ही कहाँ । हीरों का भी कितना दाम हो गया है।” (मु. 5.3.70 पृ.1 अंत) • “कितने बड़े2 मकान 50 मंजिल, 100 मंजिल के बनाते हैं। स्वर्ग में कोई इतने मंजिल की मकान आदि होते ही नहीं। आजकल यहाँ यह बनाते रहते हैं। तो मनुष्य समझते हैं सतयुग में भी ऐसे मकान नहीं होते हैं जैसे यहाँ हम बनाते हैं। बाप खुद समझाते हैं इतना झाड़ सारे विश्व पर होता है तो वहाँ माड़ियाँ आदि बनाने की दरकार ही नहीं। ढेर के ढेर जमीन पड़े रहते हैं। यहाँ तो जमीन है नहीं। इसलिए जमीन का दाम कितना बढ़ गया है। वहाँ तो जमीन का भाव लगता ही नहीं। न तो म्युनिसीपैलिटी का टैक्स आदि लगता है। जिसको जितनी जमीन चाहिए ले सकते हैं। वहाँ तुमको सभी सुख मिल जाते हैं। सिर्फ बाप की इस एक नालेज से मनुष्य 100 माड़ियाँ आदि बनाते हैं उसमें भी पैसा तो लगता है ना। वहाँ पैसे आदि लगते ही नहीं। अथाह धन रहता है। पैसे का कदर ही नहीं। ढेर के ढेर पैसे होंगे तो क्या करेंगे? सोने के, हीरे के, मोतियों के महल बना देते हैं।” (मु. 27.6.69 पृ.1 आदि) • “वह सूर्य, चांद और सितारे आदि तो हैं ही हैं। सतयुग में भी हैं तो अभी भी हैं। इनका बदल सदल नहीं होता।” (मु. 12.7.76 पृ.2 अंत) • “वहाँ तो मंदिर, म्युजियम होते नहीं। नैचुरल ब्युटि होती है। मनुष्य बहुत थोड़े। सुगंध आदि की भी दरकार नहीं रहती। हर एक को अपना-अपना फर्स्टक्लास बगीचा होता है, फर्स्टक्लास फूल होते हैं। वहाँ की तो हवा भी फर्स्टक्लास होगी। कब तंग नहीं करेंगे। वहाँ सदैव बहारी मौसम रहेगी। अगरबत्ती की भी दरकार नहीं।” (मु. 12.6.74 पृ. 2 अंत) • “ऐसी सफियतें होंगी जो न गर्मी न ठंडी होंगी। पंखे भी बहुत होते हैं, जब गर्मी होती है। वहाँ तो गर्मी का दुख ही नहीं, जो पंखे आदि हों। उसका तो नाम ही है स्वर्ग । हैविन। वहाँ अपार सुख होते हैं।” (मु. 16.4.68 पृ.3 मध्यांत) • ” आपके फॉरेन के स्थान बहुत छोटे-2 टापू बन जाएँगे, जहाँ पिकनिक करने जाएँगे। (अ.वा. 31.12.70 पृ.336 मध्य) • “जो गाया हुआ है देवताओं के आगे प्रकृति हीरे रतनों की थालियां भर कर आये। पृथ्वी और सागर यह आपके लिए चारों ओर फैला हुआ सोना और मोती, हीरे एक स्थान पर इकट्ठा करने के निमित्त बनेंगे। इसी को कहा जाता है थालियां भरकर आये। थाली में बिखरी हुई चीज़ इकट्ठी हो जाती है ना। तो यह भारत और आस पास यह स्थान थाली बन जायेंगे। सेवक बनकर विश्व के मालिकों के लिए तैयारी कर आपके आगे रखेंगे।” (अ.वा. 4.2.80 पृ. 269 अंत) • “बाप कितना समझाते हैं सतयुग में बीमारियाँ आदि होती ही नहीं। यहाँ तो अनेक प्रकार की बीमारियाँ अनगिनत हैं। कितनी दवाईयाँ डॉक्टर लोग देते हैं। वहाँ यह खांसी आदि कुछ भी नहीं होती । सेन्सीबुल बच्चे झट समझेंगे बरोबर ऐसे वहाँ नैचुरल ऐसे2 पंछी होंगे जिसकी आवाज़ ही साज़ होगी, जिस पर आप लोग उठेंगे। उठने का टाइम सवेरे का होगा; लेकिन वहाँ थकान नहीं होगी। जागेगे सवेरे ही; लेकिन सदा ही जैसे जागती ज्योत बन रहेंगे। कोई हार्ड वर्क तो वहाँ होगा नहीं। न हार्ड वर्क होगा, न हार्ड बुद्धि का वर्क होगा और न किसी प्रकार का बुद्धि में बोझ होगा। इसलिए वहाँ जागना और सोना समान होता है। जैसे अभी सोचते हो न कि सवेरे उठना पड़ेगा, वहाँ यह संकल्प ही नहीं होगा।

     नहाने के लिए पानी होगा, वो भी जैसे आजकल का गंगाजल जिसका पहाड़ों की जड़ी-बूटियों के कारण विशेष महत्व है, कीड़े नहीं पड़ते हैं, इसलिए पावन गाया जाता है। वैसे वहाँ पहाड़ों पर ऐसे खुशबू की जड़ी-बूटियों के समान बूटियों होंगी तो वहाँ से जल आने के कारण नैचुरल खुशबू वाला होगा। इत्र डालेंगे नहीं; लेकिन नैचुरल पहाड़ों से क्रास करते हुए ऐसी खुशबू की बूटियाँ होंगी जो सुन्दर खुशबू वाला जल मिलेगा।

     फल ऐसी वैराइटी रसना वाले होंगे जैसे यहाँ अलग2 नमक, मीठा अथवा मसाला आदि डालकर रसना बनाते हो, वैसे वहाँ नैचुरल फल भिन्न2 रसना के होंगे। अलग 2 प्रकार की रसना तैयार नहीं करनी पड़ेगी। यह शुगरमिल वगैरह वहाँ नहीं होंगी; लेकिन वहाँ शुगरफल होगा। जैसी टेस्ट चाहिए वैसी नैचुरल फल से बना सकते हो।

     नैचुरल रस के फल अलग होंगे, खाने के अलग, पीने के अलग होंगे। मेहनत करके रस निकालना नहीं पड़ेगा। हरेक फल इतना भरपूर होगा जैसे अभी नारियल का पानी पीते हो ना। ऐसे फल उठाया, ज़रा-सा दबाया और रस पी लिया।

     दूध की तो नदियाँ होंगी। पानी की नदियाँ नहीं होंगी, नदियाँ दूध की होंगी। दूध की नदियाँ, यह एक मुहावरा है- ‘दूध-घी की नदियाँ बहती है। वास्तव में दूध की नदियाँ नहीं होती हैं; लेकिन गायों से दूध इतना जास्ती निकलेगा जैसे विलायती गाएँ, जरसी आदि गाएँ ढेर सारा दूध देती हैं, वैसे ऑटोमैटिक उन गायों से इतना दूब मिलेगा जैसे चारों तरफ़ परनाले बह रहे हो।

     जैसे आजकल अनेक प्रकार के साज़ आर्टीफिशल बनाते हैं वैसे पंछियों की बोली वैराइटी साज़ की होगी। चेतन खिलौने के समान अनेक प्रकार के खेल वो पक्षी आपको दिखाएँगे। जैसे आजकल यहाँ मनुष्य भिन्न2 प्रकार की बोलियाँ सीखते हैं। मनोरंजन के लिए, वैसे ही वहाँ के पंछी भिन्न2 सुंदर आवाज़ों से आपके इशारे पर मनोरंजन करेंगे।

     वहाँ की पढ़ाई भी एक खेल होती है। खेल2 में पढ़ाई पढ़ेंगे; क्योंकि अपनी राजधानी की नॉलेज तो रखेंगे ना। तो राजधानी की नॉलेज की पढ़ाई है; लेकिन मुख्य सबजेक्ट वहाँ की ड्राइंग है। चाहे छोटा बच्चा हो, चाहे बड़ा आदमी हो, सब आर्टिस्ट होंगे, सब चित्रकार होंगे। अच्छी2 चित्रकारी करते रहेंगे। साज़ होंगे, चित्रकार चित्रकारी करेंगे और खेल खेलेंगे। साज़ अर्थात् गायन विद्या के संगीत गायेंगे, बहुत से खेल खेलेंगे और इन्हीं खेल2 में पढ़ाई भी पढ़ते रहेंगे।

     नाटक भी करेंगे, बाकी वहाँ सिनेमा आदि नहीं होंगे। नाटक होगा और नाटक हँसी के, मनोरंजन के होंगे। दुखदायी नाटक नहीं होगा जिनका अन्त दुख में होता हो। तो नाटकशालाएँ काफी होंगी। एक-दो नाटकशालाएँ नहीं, ढेर की ढेर नाटकशालाएँ होगी और सभी अच्छे नाटकबाज़ होंगे।

     वहाँ दुकानदार और ग्राहक का भाव नहीं होगा। सबके अन्दर मालिकपने का ही भाव होगा। सिर्फ आपस में एक-दूसरे की चीज़ का एक्सचेन्ज करेंगे। कुछ देंगे, कुछ लेंगे और कमी तो किसी बात की भी नहीं होगी।

     ड्रेस बनाने वाले दर्जी भी वहाँ नहीं होंगे जो मेहनत करनी पड़े। हाँ, जैसा2 कार्य होगा वैसी2 ड्रेस पहनेंगे। जैसा स्थान होगा वैसी ड्रेस पहनेंगे। पहाड़ी स्थान होगा तो पहाड़ जैसी ड्रेस, मैदानी स्थान होगा तो मैदान जैसी ड्रेस, जल में स्नान कर रहे होंगे तो वैसी ड्रेस । भिन्न2 प्रकार की ड्रेसिज होंगी।

     वहाँ हीरे ही भिन्न2 रंग के ट्यूब्स के मुआफिक चमकेंगे। हरेक का महल रंग-बिरंगी लाइट से सजा हुआ होगा। 

     सतयुग में महल-माड़ियाँ – अटारियाँ नहीं होती हैं। सतयुग में तो मकानों की दरकार ही नहीं। मकान तो वहाँ बनाए जाते हैं जहाँ सर्दी और गर्मी होती है, जहाँ नत देहअभिमान होता है, जहाँ विकार होते हैं, जहाँ ईर्ष्या-द्वेष होता है वहाँ दीवारें खड़ी का की जाती हैं। स्थूल मकान वहाँ सतयुग में बनाने की कोई बात होती नहीं। वहाँ तो मौसम ही सदाबहार होता है। वहाँ तो जानवर भी एक-दो को सुख देने वाले होते हैं। जितने भी गढ़े जीवड़े हैं वो वहाँ नहीं होंगे। वहाँ सब सुन्दर सुखदायी जीवड़े होंगे। कीड़े-मकोड़े तो वहाँ होंगे ही नहीं।

     भाषा तो बहुत शुद्ध हिन्दी ही होगी। हर शब्द वस्तु को सिद्ध करेगा। शब्द बोलने से ही उसका अर्थ क्लीयर हो जाएगा।

10 वर्ष की घोषणा भारत अर्थात् राम-सीता वाली आत्माओं के लिए

10 वर्ष की घोषणा राम और सीता वाली आत्मा के लिए

      अगला हेडिंग इस चित्र के नीचे संदेश में लिखा हुआ है कि “आने वाले 10 वर्षों में भारत से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत होने वाला है और होवनहार विश्वयुद्ध के पश्चात सूर्यवंशी श्री ल., श्री ना. का राज्य शीघ्र ही आने वाला है।” यह लिखत इस बात को साबित कर देती है कि जब यह चित्र 66 में मम्मा के शरीर छोड़ने के बाद छपाया गया था, जिस समय प्रजापिता की बात आई है। पुराने त्रिमूर्ति और झाड़ के चित्र में ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के साथ ‘प्रजापिता’ शब्द एड नहीं है। ल.ना. और सीढ़ी के चित्र 66 से बने हैं, उनमें प्रजापिता शब्द एड है- प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय। इससे यह साबित होता है कि यह चित्र पहली बार 66 में ही तैयार हुआ है और 66 में यह 10 वर्ष की घोषणा कराई गई है। ” तुम ब्रह्माकुमारियाँ कहती हो हम भ्रष्टाचारी भारत को 10 वर्ष में श्रेष्ठाचारी बनावेंगी। (मु.30.8.66 पृ.1 आदि)” “जब कोई लिटरेचर बनाना है तो उसमें तारीख लिखनी है। आज से वानी 1966 से 10 वर्ष के अन्दर हम अपनी इस भारतभूमी को स्वर्ग बना कर छोड़ेंगे।” (मु.13.8.66 पृ.1 आदि) “हम अखबार में क्या डालें। यह भी तुम लिख सकते हो यह महाभारत लड़ाई कैसे पावन दुनिया का गेट खोलती है, आकर समझो। कल्प पहले मिसल इस महाभारत लड़ाई से सतयुग की स्थापना कैसे होती है, आकर समझो। 10 वर्ष में देवी-देवताओं की राजधानी स्थापन हो जावेगी । गॉड फादर से वर्थ राइट लेना हो तो आकर लो” (मु. 24.11.66 पृ.2 मध्यांत) जो घोषणा का काल 76 में पूरा होता है। 76 में यह 10 वर्ष के अंदर भारत में से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत हो जाना चाहिए; लेकिन एक तो इसका हद का अर्थ है। हद का अर्थ लगाने वाले ब्रह्माकुमार-कुमारियों ने यह समझ लिया कि- 76 में तो भारत में से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत हुआ ही नहीं सारे भारत में होना तो दूर है, एक ब्रह्माकुमार- कुमारी भी ऐसा नहीं दिखाई पड़ता जिसमें यह भ्रष्टाचार और विकारों का अंत हुआ हो, और 76 में मनुष्य से कोई देवता बना हो; इसलिए इस चित्र को बिगाड़ दो अथवा इस चित्र में जो 10 साल की जो घोषणा लिखी हुई है इसको बिगाड़ दो। तो उन्होंने 10 साल के ऊपर काला चिप्पा लगा दिया या तो चित्र को ही उड़ा दिया। लेकिन ये सब (करने की जरूरत नहीं थी।

     “बेहद का बाप बेहद के बच्चों से बेहद की बातें करते हैं।” भारत शब्द कोई भारत की जमीन के लिए या भारत की 70 / 80 करोड़ मनुष्यात्माओं के लिए लागू नहीं होता है। यह भारतमाता कहा जाता है। इससे साबित है कि जरूर कोई माता है जो भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली है। जिसके लिए पहली अव्यक्त वाणी 21.1.69 पृ.24 आदि में बोला हुआ है “भारत माता (शिव) शक्ति अवतार अंत का यही नारा है।” वो शिव की शक्तियाँ ही निकलेंगी जो सारे विश्व में से विकारों का खलासा करेंगी, भ्रष्टाचार को दूर करेंगी। संघारकारिणी गाई जाती हैं; लेकिन यहाँ तो 76 की बात है कि 76 में भारत से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत होना चाहिए। वास्तविकता यह है कि बाबा ने जो बात बोली थी कि भारत में से भ्रष्टाचार और विकारों का 10 वर्षों में अंत होगा, वो गुप्त शक्ति वास्तव में 76 से ही श्रेष्ठाचारी पार्ट बजाना शुरू करती है। उसमें से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत हुआ पड़ा है। प्रैक्टिकल कर्मणा की जीवन में कोई देवी नहीं बन जाती। देवी-देवताओं की प्रत्यक्षता तो युगल रूप में होगी। सिंगल रूप में प्रत्यक्षता नहीं होती; लेकिन इस बात का प्रूफ है कि प्योरिटी से यूनिटी जरूर देखने में आती है। जहाँ प्योरिटी होगी वहाँ यूनिटी जरूर होगी। प्योरिटी नहीं होगी तो यूनिटी भी नहीं होगी। बाबा ने रानी मक्खी का मिसाल दिया है कि जब शहद की एक रानी मक्खी उड़ती है तो उसके पीछे सारा झाड़ जाता है। “तुम मालूम है टिड्डियों का झुंड कितना बड़ा होता है। सबकी यूनिटी होती है। पहले आगे वाला बैठा तो सब बैठ जायेंगे। मधुमक्खियाँ भी ऐसी होती हैं। रानी ने घर छोड़ा तो सब भागेंगी उनके पिछाड़ी। वह जैसे उन्हों का साजन हुआ। उनमें फिर सजनी ही राज्य करती है हमजिन्स पर। (मु.17.11.91 पृ.2 अंत) • माखी (शहद) की मक्खियाँ होती हैं उनमें भी क्वीन होती है। बाकी सब उनके आमुक होती है। क्वीन गई तो उनके पिछाड़ी सब भागेगी। लब है ना कितनी समझ है उनमें (मु.20.1.74 पृ.3 अंत) • “सबसे तीखा झुण्ड मधुमक्खियों का होता है। बहुत आपस में एकता होती है। इन्हों का हेड रानी होती है। भारत में भी पहले 2 रानी पीछे राजा; इसलिए मदरकन्ट्री कहते हैं।” (मु.24.6.68 पृ.2 मध्यादि) “मक्खियों की भी रानी होती है। रानी के साथ पीछे 2 सब मक्खियाँ जाती हैं। रानी अर्थात् माँ साथ उनका कितना संबंध है।” (मु. 3.6.76 पृ.2 आदि)

     वास्तव में बात इस यज्ञ की है। रानी मक्खी तो 76 से ही तैयार हुई पड़ी है। सिर्फ उसके द्वारा संगठन रूपी एक छत्ता छोड़कर दूसरा छत्ता बसाने की बात है। “लक्ष्मी का यादगार डबल रूप में एक तरफ धन देवी अर्थात् दाता का रूप संगमयुग का यादगार है जो सदैव धन देते रहते हैं। यह संगमयुग पर अविनाशी धन- देवी के रूप में चित्र दिखाया जाता है। सत्युग में तो कोई लेने वाला ही नहीं होगा तो देंगे किसको? यह संगमयुग के श्रेष्ठ कर्तव्य की निशानी है और दूसरे तरफ ताजपोशी दिवस के रूप में मनाया जाता है। ताजपोशी भविष्य की निशानी है और धन देवी संगमयुग के दाता रूप की निशानी है। दोनों ही युग को मिला दिया है; क्योंकि संगमयुग छोटा सा युग है; लेकिन जितना छोटा है उतना महान है। सर्व महान कर्तव्य, महान स्थिति, महान प्राप्ति, महान अनुभव इस छोटे-से युग में होते हैं। बहुत प्राप्ति, बहुत अनुभव होते और संगमयुग के बाद सत्युग जल्दी आता है, इसलिए संगमयुग और सत्युग के चित्र और चरित्र मिला दिए हैं। चित्र सत्युग का चरित्र संगम का दे देते हैं।” (अ.बा. 21.10.87 पृ.94 अंत) •“कितने भी कारण हो- मैं निवारण करने वाली हूँ न कि कारण को देख कमज़ोर बनना है।… इसको विजयी कहा जाता। ऐसे श्रेष्ठ लक्षणधारी भविष्य में लक्ष्मी रूप बनते हैं। लक्ष्मी अर्थात लक्षण वाली”. (अ.वा. 4.3.72 पृ.239. अंत) • “लक्ष्मी स्वरूप अर्थात् धन देवी और नारायण स्वरूप अर्थात् राज्य अधिकारी लक्ष्मी को धन देवी कहते हैं। वो धन नहीं; लेकिन ज्ञान के खजाने जो मिले हैं उस धन की देवियाँ।” (अ.वा. 21.01.80 पृ.803 मध्य)

   “लक्ष्मी अर्थात् व्यक्ति की देवी। वह स्थूल संपत्ति नहीं,, नॉलेज की संपत्ति,शक्तियों रूपी सम्पत्ति की देवी अर्थात् देने वाली… चाहे नॉलेज देवे, चाहे शक्ति देवे]” (अ.वा. 23.1.76 पृ.20 आदि)

     टीचर को भी सबक देना है। खिर होना चाहिए। कोई भी कुछ कड़ेगा नहीं। फिर भी बाप के बने तो पेट भर तो मिल सकता है। शरीर निर्वाह के लिए बहुत मिलेगा। अहमदाबाद में वेदान्ती बच्ची है। उसने इम्तिहान दिया, उसमें एक प्वाइंट श्री गीता का भगवान कौन? इसने परमपिता परमात्मा शिव लिख दिया, इनको नापास कर दिया। और जिन्होंने कृष्ण भगवान लिखा उनको पास कर दिया। जिस बच्ची ने सच बताया तो उनको ना जानने कारण नापास कर दिया। फिर लड़ना पड़े। मैंने तो यह सच लिखा है। गीता का भगवान है ही निराकार परमपिता परमात्मा । कृष्ण, जो देहधारी है वो तो हो ना सके। परंतु बच्ची की दिल थी इस कहानी सर्विस करने की तो छोड़ दिया। नहीं तो ऐसी 2 मानों में तुम उड़ो तो नाम बाला हो जाये में कड़े वह समझाते तो बहुत अच्छा है।” (मु. 7.7.70 पृ.2 मध्य)

     “दीपमाला पर लक्ष्मी का चित्र थाली में रख उनकी पूजा कर फिर रख देते हैं। वह है महालक्ष्मी युगल है ना मनुष्य इन बातों को नहीं समझते। लक्ष्मी को पैसा कहाँ से मिलेगा। युगल तो चाहिए ना तो है युगल नाम फिर महालक्ष्मी रख देते हैं।” (मु. 14.10.68 पृ.2 मध्य)

     “दीपमाला पर लक्ष्मी का आवाहन करते हैं क्यों? नारायण ने क्या गुनाह किया। लक्ष्मी को भी धन तो नारायण ही देता होगा ना। वास्तव में धन कोई लक्ष्मी ने नहीं मिलता। धन तो जगत अम्बा से मिलता है। तुम जानते हो जगत अम्बा वो ही फिर श्रीलक्ष्मी बनती है तो उन्होंने अलग-2 कर दिया है।” (मु. 14.10.73 पृ.3 मध्यांत)

      ” हे सत्यभामा, कमदिवी तुम क्या करती हो? जब तक औरों को स्वर्गवासी न बनाया है तो स्वर्ग में कैसे जायेंगे! बस ऐसे ही बैठे हो कोई से हरि जैसा साहुकार बनाना यह बाप का धंधा बच्चों को भी करना चाहिए ना! भारत को हीरे जैसा पावन बनाओ।” (मु.14.7.63 पृ.2 मध्य)

     “तो अब खड़ा होना चाहिए। ऐसे शंकराचार्य की सेना पर जीत पहनती है। ऐसे थोड़े ही घर में चुप कर बैठने से जीत पहनेंगे। झुण्डों में (घु) स जाना है। उनको समझाना है। इसमें हिम्मत चाहिए ना।” (मु.14.7.63 पृ.2 अंत)

     “अरे, बंधन को तो तोड़ना पड़े ना! समझाना है, हमको तो सर्विस पर जाना है। कौरवों को माइयों और पाण्डवों की माइयाँ की भेंट करो। वो हैं हिंसक; तुम हिंसक वो कितनी फुर्त हैं, बाहर जाकर लेक्चर आदि करती हैं। तुम तो वो ही जैसी गृहस्थी रामकरियों हो ज्ञान योगबल से समझाना तो है ना! बंधन करते 2 – रह जायेंगी। सर्विस कहाँ की ? प्रजा कहाँ बनाती हो?” (मु.14.7.63 पृ.2 अंत, पृ. 3 आदि) “शेरनी शक्तियों की तो शेर पर सवारी दिखाई है। शेर बहादुर होता है। तुम रौढ़-बकरी तो नहीं हो ना। शेर सदा गजगोर करते हैं। तुम भी ज्ञान गजगोर करते हो। जो बादल नहीं बनते, वह क्या महारानी-महाराजा बनेंगे ?’ (मु.14.7.63 पृ.3 मध्यादि)

     वो भारतमाता शिवशक्ति अवतार (अर्थात्) उसका प्रत्यक्षता रूपी जन्म जब होगा तो सब उसको फॉलो करेंगे। सरि ब्राह्मण परिवार में जो भी श्रेष्ठ आत्माएँ हैं, प्योरिटी को विशेष महत्व देने वाली आत्माएँ हैं वो उसके पीछे2 चल पड़ेंगी।

     तो क्या भारतमाता का ही गायन है? भारतमाता है तो क्या वो माता विधवा थी क्या? पिता नहीं था क्या? भारतीय परम्परा में तो विधवा की पूजा नहीं होती, विधवा को तो हेय दृष्टि से देखा जाता है। भारत में तो खास ‘वन्दे मातरम् और जय माता दी’ की ध्वनि लगाते हैं, देवी जागरण करते हैं तो माता ही माता, जैसे पिता होता ही नहीं। लेकिन नहीं, माता है तो पिता जरूर पीछे से छत्रछाया के मुआफिक होगा। हाँ, शक्तियों को बाबा ने आगे जरूर किया है। बाबा खुद पीछे प्रत्यक्ष होना चाहता और शक्तियों को आगे प्रत्यक्ष करना चाहता। • “शिव भगवानुवाच माताएँ स्वर्ग का द्वार खोलती हैं।… इसलिए वंदे मातरम् गाया जाता है । वन्दे मातरम् तो पिता भी अण्डरस्टुड है।” (मु.10.6.69 पृ.2 अंत) इस आधार पर वो भारतमाता है तो उसके साथ पिता भी जरूर है और वो पिता सिर्फ भारत का पिता नहीं, वो तो विश्व का पिता होता है; क्योंकि माता तो घर सम्भालती है और बाप बाहर भी सम्भालता है, घर भी सम्भालता है। वो विश्व का पिता है; क्योंकि ब्रह्मा सो विष्णु बनता है ना! तो ब्रह्मा सो विष्णु वो तो भारत की माता है। विदेशी लोग गॉडमदर को नहीं मानते, गॉडफादर को मानते हैं। भारत के लोग गॉडमदर (माता) को भी मानते हैं। ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’- पिता को भी मानते हैं। हमारा भारतवर्ष है ही प्रवृत्तिमार्ग का देश | यहाँ प्रवृत्ति को मानने वाला देवी-देवता सनातन धर्म पनपा है। उसका फाउंडेशन जमाने के लिए वो पिता पहले से ही उन शक्तियों के द्वारा वो पुरुषार्थ कराने वाला (मौजूद) होता है। जिससे वो भारतमाता बनकर संसार में प्रत्यक्ष होती हैं और वो पिता है- रुद्रमाला का हेड, जिसे कहते हैं- ‘शंकर’। रुद्रमाला के हेड शंकर के लिए शास्त्रों में प्रसिद्ध है कि वो विष तो पीता था, विकारी तो उसको दिखाया गया; लेकिन विष कंठ में रुका हुआ था, उस विष का प्रभाव उनके अंदर नहीं हुआ। ऊपर से देखने की दृष्टि में अज्ञानियों के लिए तो वो विकारी है, कलंक को धारण करने वाला है, कलंकीधर है; लेकिन वास्तव में निष्कलंक है। तो वो भारत शब्द माता और पिता दोनों के लिए लागू होता है। ऐसे नहीं कि माता निर्विकारी हो गई तो पिता कोई विकारी था। यानी वो राम-सीता बाली आत्माएँ 76 से ही ब्राह्मणों की संगमयुगी दुनिया में ऐसा पुरुषार्थ करती हैं जो पुरुषार्थ वास्तव में गुह्यगति का पुरुषार्थ होता है; क्योंकि बाबा ने मुरली में बोला है-“शंकर क्या करते हैं? उनका पार्ट ऐसा वण्डरफुल है जो तुम विश्वास न सको। “(मु.14.5.70 पृ.2 आदि)

                 आश्चर्यवत्पश्यति कचिदेनमाचर्यवद्धदति तथैव चान्यः । आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।  2/29

    कोई व्यक्ति इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है और दूसरा उसी प्रकार आश्चर्य की ज्यों वर्णन करता है और दूसरा कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई सुनकर भी इसे नहीं जानता।

     शंकर का पार्ट वण्डरफुल है, पार्वती का पार्ट तो वंडरफुल नहीं होगा। वो ती सबको सहज ही समझ में आ जाएगा। इसलिए सब झट से फालो करने लग पड़ने शंकर के पार्ट में समझने में कुछ राज छिपा हुआ है। उस राजयोग की गहराई को जी आत्माएँ समझेंगी वो सिर्फ 16000 गोप-गोपियाँ ही दिखाई जाती हैं। गोप-गोि का मतलब ही है गुप्त पुरुषार्थी । सारी दुनिया उस बात की गहराई को नहीं समझ सकेगी कि उन गोप-गोपिकाओं ने कैसा गुप्त सम्बंध उस परमात्मा के साथ जोड़ा था, जिसमें वो योगी भी था। गृहस्थी जीवन में रहते हुए भी, भोगी जीवन में रहते हुए भी योगी कैसे था?

     वो बात समझने की है कि ऐसे नहीं माता सीता 76 से निर्विकारी बनी और प्योरिटी के आधार पर उसने अपनी यूनिटी तैयार की, शिवशक्तियों का संगठन तैयार हुआ। भारतवर्ष में और विदेशों में भी इतनी ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ जिन्होंने अपने जीवन को अर्पण किया है क्या उनमें से 108 शक्तियाँ ऐसी नहीं होंगी जो नम्बर पुरुषार्थ अनुसार पवित्रता के लिए बिल्कुल दृढ प्रतिज्ञ हो? चलो 108 नहीं होगी, एक तो होगी। बाबा ने जो महावाक्य बोला है कि 76 में भारत से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत होने वाला है वो उसी एक शक्ति के लिए बोला है। कोई कहे प्रकर इस बात का प्रूफ है कि अगर उसमें प्योरिटी की भासना होगी तो उसकी यूनिटी भी सब ब्रह्माकुमारियों के मुकाबले सबसे जास्ती तीखी होगी। और2 ट्रांसफर होने से डरती हैं। पता नहीं दूसरी जगह जाकर हमारे प्योरिटी के आधार पर ब्रह्माकुमारियों यूनिटी, संगठन बना या नहीं बना। इसलिए हम ट्रांसफर होना नहीं चाहते; लेकिन वो प्योरिटी की यूनिटी को बनाने वाली जो शक्ति है उसको कहीं भी ट्रांसफर कर दिया जाए, दुनिया के कोई भी देश-प्रदेश में, अफ्रीका जैसे हब्शियों के देश में ही क्यों न डाल दिया जाए, फिर भी वो अपने प्योरिटी के आधार पर यूनिटी तैयार कर लेती है। यह प्रूफ है कि भारत के अंदर कोई एक ऐसी शक्ति है जो 76 से तैयार हो चुकी है। चैतन्य भारत में से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत हो चुका है। जब वो शक्ति है तो पिता भी जरूर है। हाँ, यह है कि एक होती है मन-बुद्धि की प्योरिटी और होती है स्थूल शारीरिक प्योरिटी। तो मन-बुद्धि की जो प्योरिटी है वो है नष्टोमोहा की प्योरिटी-‘नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा’  || 18/73

      “सहज नष्टोमोहा होना यह बहुत काल के योग के विधि की सिद्धि है।” (अ.वाणी 25.11.93 पृ.26 आदि )

     तुम बच्चे कर्मेद्रियों से भल कोई भी कर्म करो; लेकिन बाप की याद होनी चाहिए, तो तुम्हारे कर्म भी अकर्म हो जाएँगे; लेकिन 100 परसेंट बाद होनी चाहिए। अगर 99 परसेंट याद है और एक परसेंट भी अगर देहभान है तो उस कर्म का पाप जरूर बनेगा। बाबा ने तो मुरली में बोला है- “बाप विनाश उनसे कराते हैं जिस पर कोई पाप न लगे।” (मु. 29.4.70 पृ.1 मध्य)

                                       यस्य नाहृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निवध्यते | 18/17 

     जिस ज्ञानी को ‘मैंने किया है’ ऐसा भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि कर्म में लिप्त नहीं होती, वह इन कलियुगी पापी लोगों को मारकर भी नहीं मारता और न बंधनयुक्त होता है। शंकर का तो पार्ट ही निराला है। है तो वो जगतपिता का पार्ट। ‘त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः’ (गीता- 11/38) और ‘जगतं पितरं वंदे पार्वती परमेश्वरौ’ कहा जाता है; लेकिन पार्वती के पार्ट को तो समझा जा सकता है। पार लगाने वाली को ही पार्वती कहा जाता है। वो पार्ट अंत में खुलता है। कहते भी हैं ‘छुपा रुस्तम बाद में खुले। 

     इस चित्र में 10 वर्ष की घोषणा का जो लास्ट प्वाइंट है वो राइट है। यह झूठी बात नहीं है कि 10 वर्षों में भारत से भ्रष्टाचार और विकारों का अंत नहीं हुआ। भारत शब्द जो है वो बाबा ने राम-सीता वाली आत्माओं के लिए लागू किया है। इसका इशारा देने के लिए बाबा ने एक वाक्य भी बोला हुआ है- “तुम कह सकते हो रामायण की सारी कथा भारत पर ही है। सिर्फ समझाने का ख़िर चाहिए।” (मु. 12.1.75 पृ.3 अंत) अरे! रामायण में सारी कथा, राम-सीता के ऊपर है, राम- रावण के ऊपर है या भारत के ऊपर है? बाबा ने सिद्ध किया कि रामायण की कथा ने तो वास्तव में हीरो-हीरोइन के ऊपर ही होती है। विलियन के ऊपर तो नहीं होती। रामायण के हीरो-हीरोइन कौन हैं? राम-सीता राम सीता ही वास्तव में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली आत्माएँ हैं। मर्यादा के बारे में जब कोई मिसाल दिया जाता है तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरफ इशारा किया जाता है। कोई कहे कि यह कैसा तुम्हारा मर्यादा पुरुषोत्तम जो शास्त्रों में और चित्रों में विषपायी दिखाया गया है? उसका ऐसा चित्रण क्यों किया गया? वास्तव में यह भी एक रहस्य की बात है जो समझनी है और समझानी है। ओमशान्ति।

लक्ष्मी -नारायण | एडवांस कोर्स | 7 Day course |आध्यात्मिक ज्ञान

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