श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय 6 ( आत्मसंयमयोग ) | Bhagwat Geeta Chapter 6 AtmaSanyamYog (Complete)

श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय 6 ( आत्मसंयमयोग ) | Bhagwat Geeta Chapter 6 AtmaSanyamYog (Complete)

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छठा अध्याय- आत्मसंयमयोग ~ श्रीमद्भगवद्‌गीता

1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण

श्रीभगवानुवाच-अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः।। 6/1

अर्थात – जो कर्मफल का आश्रय न लेकर {एडवांस सच्चीगीता-मतानुसार} करने योग्य कर्म करता है, वह {बेहद का} संन्यासी {भी है} और कर्म {करते भी} योगी है; किन्तु ज्ञान-योगाग्निहीन (कर्मभोगी} नहीं और {निठल्ला/} निष्क्रिय {संन्यासयोगी भी} नहीं।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यं सन्न्यासं इति प्राहुः योगं तं विद्धि पाण्डव।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।। 6/2

अर्थात- हे पाण्डव! जिसको {मनसा संकल्पों से भी} संपूर्ण त्यागी=संन्यासी, ऐसा कहा जाता है, {वास्तव में} {कर्मघमंडरहित} उसको कर्मयोग समझो; क्योंकि कोई {इन्द्रियों से करता या न करता हुआ} सर्वसंकल्पों का संपूर्ण त्यागी नहीं है {तो} योगी नहीं होता; {सांसारिक भोगी ही है।}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

आरुरुक्षोः मुनेः योगं कर्म कारणं उच्यते।
योगारूढस्य तस्य एव शमः कारणं उच्यते ।। 6/3

अर्थात- योग-स्थिति में चढ़ने के इच्छुक मुनि के लिए {मन-व.-कर्म से अलौकिक हुआ} यज्ञकर्म {ऊँची अव्यक्त स्थिति का} कारण कहा है {और तन-धनादि के ‘त्याग से} उसके चित्त की शांति ही योगारूढ़ के {एकटिक होने का} कारण कही है; {‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरं’ (गी. 12-12)}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यदा हि न इन्द्रियार्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढः तदा उच्यते।। 6/4

अर्थात- क्योंकि जब {कामविकार के संकल्प सहित} सब संकल्पों का संपूर्ण त्यागी, {आत्मविंद स्मृति से न {लोलुप इन्द्रियों के } कर्मों में {और} न इन्द्रिय कि स्पर्श-रूप-रसादि विविध} भोगों में आसक्त होता है, तब योग {की सर्वोच्च अव्यक्त स्थिति} में चढ़ा हुआ कहा जाता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

5-10 आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण

उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्।
आत्मा एव हि आत्मनो बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः।। 6/5

अर्थात- अपने मन-बुद्धि द्वारा ज्योतिबिंदु आत्मा को ऊँची स्थिति {क हीरो} में ले जाए। आत्मा को {भ्रष्ट इन्द्रियों की} अधोगति में न जाने दे; क्योंकि ज्योतिबिंदु आत्मा ही अपना {सदाकाल} {सहयोगी} मित्र है। आत्मा ही अपना ‘शत्रु है। {हीरो पार्टधारी विश्वामित्र ही विश्वमित्र है।} 

-‘जीवात्मा अपना ही मित्र है, अपना ही शत्रु है। (मु.ता.21.3.67 पृ.3 मध्य) {सदा मित्र एक ही विश्वनाथ है।}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

बंधु: आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत्।। 6/6

अर्थात- जिसने अपनी {चेतन बनी} मन-बुद्धि द्वारा ज्योतिबिंदु आत्मा को जीता है, उसकी आत्मा ही {मन जीत होने से} अपना मित्र है, {दूसरा मित्र-शत्रु नहीं}; किंतु अनात्मस्थ देहभानी की  {चंचल मन वाली क्षीण बुद्धि} आत्मा ही शत्रु की तरह शत्रुता करने में तत्पर रहती है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। 6/7

अर्थात- आत्मजयी परमशांत {बिन्दु बने) पुरुष की परमपार्टधारी हीरो आत्मा (गीता15-17)। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख में तथा मान-अपमान में सन्तुष्ट रहती है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इति उच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।। 6/8

 अर्थात- {शिव के} ज्ञान+विशेष ज्ञान=योग से तृप्त आत्मा, {परम्ब्रह्म के ऊँचे} शिखर पर स्थिर, विशेष कामेन्द्रिय को भी जीतने वाला, मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण आदि में समान {भाव वाला} योगी योगनिष्ठ है ऐसा कहा जाता है। {ऐसे अलोलुप का ‘योगक्षेमं वहाम्यहम’ (गी.9-22)}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुषु अपि च पापेषु समबुद्धिः विशिष्यते।। 6/9

अर्थात- स्नेही, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी वा बंधुजनों में,{इन्द्रियों की} {साधना कर्ता} साधू और पापियों में भी समान बुद्धि वाला विशेष माना गया है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

योगी युञ्जीत सततं आत्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशी: अपरिग्रहः। 6/10

 अर्थात- {चंचल } मन व निर्णायक बुद्धि का वशकर्ता, आशाहीन, असंग्रही योगी अकेला, एकांत स्थान में स्थित हुआ निरन्तर परमात्मा से योग लगाए।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरं आसनं आत्मनः।
न अत्युच्छ्रितं न अतिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरं। 6/11
तत्र एकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगं आत्मविशुद्धये।। 6/12

अर्थात- {ज्योतिबिंदु) आत्मा की विशेष शुद्धि हेतु पवित्र स्थान में, {सूत से बने} वस्त्रसहित मृगचर्म {पवित्र} कुशाघास पर बिछाए, न अति नीचे {गर्त में}, न अति ऊँचे {स्थान पर } {अभ्यासपूर्वक} अपना स्थिर आसन जमाकर, उस आसन पर {निश्चिंत हो} बैठकर, मन को {भ्रूमध्य आत्मस्टार में} एकाग्र करके, {विशेष कर्मयोगी ब्राह्मण इसप्रकार } चित्त, इन्द्रिय-क्रिया का वशकर्ता {एक मात्र अर्जुन-रथ व्यापी शिव से} योग लगाए।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

समं कायशिरोग्रीवं धारयन् अचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्च अनवलोकयन् ।। 6/13
प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।6/14

अर्थात- स्थिर हुआ {संन्यासयोगी} शरीर, सिर-गर्दन को एक सीध में अडोल रखते हुए और अपनी {भृकुटि-मध्य में बुद्धि नेत्र से} नासिकाग्र में संपूर्ण खुली आँखों द्वारा {अपलक हुआ} | {निश्चल मन से } दिशाओं को न देखता हुआ, प्रशान्तचित्त हुआ, निर्भय {और} {बलवती दृढ़ता से कामजीतेच्छा से} ब्रह्मचर्य व्रत में स्थिर हुआ, मन एकाग्र करके मेरे में चित्त सहित आश्रित हो, {अव्यभिचारी इन्द्रियों द्वारा बाबा से} योग लगाए।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

युञ्जन् एवं सदा आत्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थां अधिगच्छति ।। 6/15

अर्थात- नियमित मन वाला {नेमिनाथ} संन्यासयोगी {अभी-2 बताया} ऐसे, सदैव {ज्योतिबिंदु} {रूप सूक्ष्म अणु} आत्मा को {मुझ शिवज्योति में} जोड़ता हुआ मेरे में स्थित {सदा असीम निर्वाणधाम की परमशान्ति को {नं. वार पुरुषार्थानुसार अतिशीघ्र ही} पा लेता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

न अति अश्नतः तु योगः अस्ति न च एकान्तं अनश्नतः ।
न च अति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो न एव च अर्जुन।। 6/16

अर्थात- हे ज्ञानधन-जेता अर्जुन! न तो अधिक खाने वाले को (बहुत आलस्य/नींद आने कारण} और न {सभी संसारी भोगियों को भूख सताने से} बिल्कुल उपवास वाले का योग लगता है तथा न अधिक सोने वाले का और न पूरा जागने वाले का ही {अच्छा योग लगता है।}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा। 6/17

अर्थात- आहार-विहार में युक्तियुक्त, कर्मों में {धर्मानुकूल} युक्तियुक्त चेष्टावान का, {इसी प्रकार सदाकाल} नियमित निद्रालु & जाग्रत का योग दुःखहर्ता होता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यदा विनियतं चित्तं आत्मनि एवअवतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इति उच्यते तदा।। 6/18

अर्थात- जब विशेषतः {मन सहित 10 इन्द्रियों द्वारा} संयमित चित्त {ज्योतिबिंदु} आत्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाता है, तब सब {प्रकार की श्रेष्ठ या निष्कृष्ट सांसारिक} कामनाओं से बिल्कुल इच्छाहीन हुआ {सहजराज} ‘योगयुक्त’ {संन्यासी या कर्मयोगी} ऐसा कहा जाता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यथा दीपो निवातस्थो न इङ्गते सा उपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगं आत्मनः। 6/19

अर्थात- जैसे निर्वात स्थान में दीपक हिलता नहीं, {वैसे} वशीभूत चित्त वाली आत्मा का लगाव {परमात्मा से} जुड़े {तो} योगी की वह उपमा याद की जाती है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यत्र उपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र च एव आत्मना आत्मानं पश्यन् आत्मनि तुष्यति।। 6/20

अर्थात- जिस {अव्यक्त अवस्था} में {आत्मा का परमात्मा से} योगाभ्यास द्वारा नितान्त वशीभूत चित्त {परमात्मा में} उपराम हो और जहाँ अपने मन-बुद्धि से {भूमध्य में ज्योतिबिंदु स्वरूप में स्थिर}  {अव्यक्त} आत्मा को देखता हुआ आत्मरूप {परमपिता शिव समान परमात्मा} में ही संतुष्ट होता है;

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

सुखं आत्यन्तिकं यत् तत् बुद्धिग्राह्यं अतीन्द्रियं ।
वेत्ति यत्र न च एव अयं स्थितः चलति तत्त्वतः।। 6/21

अर्थात- {निर्णायक} बुद्धि से ग्राह्य जो उत्कृष्टतम {विष्णुलोकीय वैकुण्ठ के कलातीत} अतीन्द्रिय सुख है उसे {उत्कृष्ट योगी} जहाँ (जिस स्थिति में} जानता है & {वहीं पर} स्थिर हुआ, तात्विक रूप से {गीता (13-5) वर्णित संसार के 23 जड़ तत्वों द्वारा} कभी विचलित नहीं होता;

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यं लब्ध्वा च अपरं लाभं मन्यते न अधिकं ततः।
यस्मिन् स्थितः न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते।। 6/22

अर्थात- और जो {स्वर्ग के अतीन्द्रिय सुख} पाकर उससे दूसरे {अधोगामी सांसारिक} लाभ को अधिक {अच्छा} नहीं मानता, जिस {विष्णुलोकीय वैकुण्ठ सुख} में स्थित हुआ {कल्पान्त की महामृत्यु के आत्यंतिक} महान दुःख से भी विचलित नहीं होता;

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितं।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगः अनिर्विण्णचेतसा।। 6/23

अर्थात- दुःखों की प्राप्ति से दूर करने वाले उस {अतीन्द्रिय सुख} को {सहजराज} ‘योग’ नाम से जानना चाहिए। {बीमारियों से भरे सांसारिक जन्म-जरा-मरण के} दुःख दर्द रहित चित्त से वह {सहजराज } योग निश्चयपूर्वक लगाना चाहिए; {क्योंकि ‘निश्चयबुद्धि विजयते’ ही सत्य बात है।} |

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

सङ्कल्पप्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वान् अशेषतः ।
मनसा एव इन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।। 6/24

अर्थात- संकल्प से पैदा सब कामनाओं को {नि:संकल्प हो} पूरी तरह त्यागकर, मन से ही इन्द्रिय-समूह को सब ओर से विशेष रूप से नियमित कर,

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

शनैः शनैः उपरमेत् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चित् अपि चिन्तयेत्।। 6/25

अर्थात- धीरे-2 मन {100 वर्षीय पु. संगम में नं. वार पुरुषार्थ से} धैर्य वाली बुद्धि द्वारा {पूरा} उपराम हो जाए {मन-बुद्धिबल को चैतन्य} आत्मबिंदु में पूरा स्थिर करके {स्वर्ण लिंगरूप सगुण + निर्गुणात्मा सदाशिवज्योति सिवाय} कुछ भी चिंतन न करे।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यतो यतो निश्चरति मनः चञ्चलं अस्थिरं।
ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशं नयेत्।। 6/26

अर्थात- अस्थिर, चंचल (कपि जैसा} मन जहाँ-2 {अपनी देह, देह के संबन्धियों, स्थान विशेष या पदार्थों} से {हठपूर्वक} चलायमान हो, वहाँ-2 से इस {मन} को {भली-भाँति प्रयत्नपूर्वक & धैर्यपूर्वक} नियमित करके {स्टार-जैसी चेतन अणुरूप ज्योतिबिंदु} आत्मा के ही वश में ले आए;

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

प्रशान्तमनसं हि एनं योगिनं सुखं उत्तमं ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतं अकल्मषं। 6/27

अर्थात- क्योंकि भली-भाँति शान्त मन वाले, शांत रजोगुण {और तामसीगुण} वाले {राजधारी} इस योगी को परंब्रह्मजनित, दोषरहित, सर्वोत्तम {अतीन्द्रिय} सुख होता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

युञ्जन् एवं सदा आत्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्श अत्यन्तं सुखं अनुते ।। 6/28

अर्थात-  ऐसे आत्मा को सदा {शिवबाबा से} संयुक्त करता हुआ पापरहित योगी सुखं अश्रुते सुख पूर्वक {साक्षात् परंब्रह्म का संपूर्ण स्पर्शयुक्त अतीव सुख भोगता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

सर्वभूतस्थं आत्मानं सर्वभूतानि च आत्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।। 6/29

अर्थात- {परमपिता+परमात्मा की याद में लगी हुई आत्मा सर्वत्र समान भाव होकर {गीता 5- समस्त प्राणियों में स्थित {ज्योतिबिंदु में भरे चेतन रिकॉर्ड रूप} आत्मा को अथवा सब {सांसारिक} प्राणियों को {स्टार-जैसे} आत्मरूप में बुद्धि रूपी तीसरे ज्ञान-नेत्र से} देखता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्य अहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। 6/30

अर्थात- जो {प्रेमी-जैसा} सर्वत्र मुझे देखता है और {बीज में वृक्ष जैसा} मुझ {शिव+बाबा} में सबको देखता है, {अर्थात् आत्मा सो परमात्मा के अज्ञान से दूर है}, मैं उससे {कभी} दूर नहीं होता और वह {खास पु. संगम में} मेरे से {भी} अदृश्य नहीं होता।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

सर्वभूतस्थितं यो मां भजति एकत्वं आस्थितः ।
सर्वथा वर्तमानः अपि स योगी मयि वर्तते ।। 6/31

अर्थात- { पुरु. संगम के मुकर्रर अर्जुन-रथ में} एकव्यापी {परमपिता शिव} को जो {योगी} सब प्राणियों में {नं. वार योग-ऊर्जा से} स्थित मुझे भजता है, वह {श्रेष्ठ} योगी सब प्रकार से व्यवहार करते भी मेरे {परमपार्टधारी हीरो परमात्मरूप दिल में है।

 

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यः अर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। 6/32

अर्थात- हे अर्जुन! जो {पशु पक्षी-कीट आदि} सब प्राणियों में आत्मभाव से सुख को वा दुःख को समान देखता है, वह {आत्म-दृष्टि वाला} योगी परममान्य है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

33-36 मन के निग्रह का विषय

अर्जुनउवाच-यः अयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिरां|| 6/33

अर्थात- मधुसूदन त्वया साम्येन योऽयं हे मधु {जैसे मीठे कामविकार के} हंता {शिवबाबा}! आपने साम्यता द्वारा जो यह योग कहा, उसके लिए {मेरे कपि मन की} चंचलता {या अपनी आसक्तियों के कारण कोई स्थिर आधार मुझे दिखाई नहीं देता। {जन्म-2 की चंचलदृष्टि आत्मदृष्टि में विघ्न है।}

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढं।
तस्य अहं निग्रहं मन्ये वायोः इव सुदुष्करं ।। 6/34

अर्थात- हे आकर्षणमूर्त शिवबाबा! मन {बंदर जैसा} चंचल है, {इन्द्रियाँ} मथ डालता है, {बड़ा} बलवान है, हठी है; क्योंकि मैं उस {सात्विक बुद्धि रहित बेलगाम घोड़े} का रोकना {मुश्किल से हठयोग पूर्वक रोकी जाने वाली प्राण-} वायु समान अति कठिन मानता हूँ।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

श्रीभगवानुवाच-असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। 6/35

अर्थात- निस्संदेह हे महाबाहू! {तीव्रधावी} चंचल {कपिध्वज} मन दुराग्रही है; किन्तु कौन्तेय वैराग्येण चाभ्यासेन गृह्यते हे अर्जुन! {एटामिक महाविनाश के} वैराग्य & योगाभ्यास से वश में आता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुं उपायतः। 6/36

अर्थात- असंयत (इच्छाओं से भरे-पूरे इस } मन {रूप मनुआ} वाले के लिए योग की प्राप्ति कठिन है, ऐसा मैं {भोगी आत्माओं लिए} मानता हूँ; किंतु प्रयत्नपूर्वक {अभी-2 बताए} उपायपूर्वक वशीभूत मन {निरंतर वैराग्य & ‘मामेक’ की अव्यभिचारी याद} से हाथ आ सकता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

अर्जुन उवाच-अयतिः श्रद्धया उपेतो योगात् चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं का गतिं कृष्ण गच्छति।। 6/37

अर्थात- हे आकर्षणमूर्त {शिवबाबा!} सहजराजयोग से श्रद्धायुक्त; {किंतु विकारों से} विचलित मन वाला अयोगी={भोगी व्यक्ति} योग {से वैकुण्ठ} की संपूर्ण सिद्धि न पाकर {यदि उत्तम राजा नहीं तो मध्यम या नीच प्रजापद की} किस गति को जाता है?

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

कच्चित् न उभयविभ्रष्टः छिन्नाभ्रम् इव नश्यति ।
अप्रतिष्ठः महाबाहो विमूढः ब्रह्मणः पथि।। 6/38

अर्थात- हे विशालभुजी अष्टमूर्ति {शिरोधारी} शिवबाबा! परंब्रह्म के मार्ग में भूला हुआ {सर्वथा} स्थितिभ्रष्ट योगी, {अभ्यास और वैराग्य} दोनों तरह से भ्रष्ट हुआ, {हताश हुआ व्यक्ति} फटे बादल की तरह कहीं {पागलों की जैसी स्थिति में} नष्ट तो नहीं हो जाता?

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

एतत् मे संशयं कृष्ण छेत्तुं अर्हसि अशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्य अस्य छेत्ता न हि उपपद्यते।। 6/39

अर्थात- हे आकर्षणमूर्त! मेरे इस सन्देह को {जो दुबारा न उठे-ऐसे} पूरी तरह {जड़ सहित} नष्ट करने में समर्थ हो; क्योंकि {ऊँचे-से-ऊँचे आप भगवंत-जैसा} इस संशय का {साक्षात्} नाशकर्ता आपके सिवा दूसरा {संसारभर में कोई अखूट ज्ञान भंडारी} नहीं मिल सकता।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

श्रीभगवानुवाच-पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति ।। 6/40

अर्थात- हे पृथ्वीपति! उस {योगी} का न इस {नारकीय पृथ्वी} लोक में, {या देवलोकीय } परलोक में भी {सवर्था} विनाश नहीं होता; क्योंकि हे तात! कोई भी {ज्ञानसूर्य विवस्वत की} कल्याणकारी {आत्मकिरणस्वरूप सूर्यवंशी बनी औरस संतान} दुर्गति में नहीं जाती।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

प्राप्य पुण्यकृतां लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते।। 6/41

अर्थात- योगभ्रष्ट व्यक्ति {पापात्माओं के नारकीय लोक में सीधा नहीं जाता}, पुण्यात्माओं के लोकों को {यहीं} पाकर, अनेक वर्षों तक {साधारण समझे गए प्रजावर्ग के सामान्य जीवन में} रहकर, {श्रेष्ठ कुल के ‘एक नारी सदा ब्रह्मचारी’ गृहस्थियों में}, पवित्र श्रीमन्तों के घर में जन्म लेता है

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

अथवा योगिनां एव कुले भवति धीमतां।
एतत् हि दुर्लभतरं लोके जन्म यत् ईदृशं|| 6/42

अर्थात- अथवा बुद्धिमान योगियों के {लगनशील; किन्तु संशयालु बने ब्राह्मणों के अधूरे} कुल में ही पैदा होता है; किन्तु ऐसा {साक्षात् माहेश्वरी सूर्य-वंशियों के परिवार में} जो जन्म है, इस {पु. संगम में तीव्रतर पुरुषार्थियों के} लोक में अधिक कठिन है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकं ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। 6/43

अर्थात- वहाँ {ब्राह्मण बने} पूर्वजन्म से प्राप्त वह {एडवांस रुद्रगणों का} बुद्धि-संयोग पाता है और फिर हे कुरुवंशियों के ठिठ घमंडी स्लामी-बौद्धी आदि विधर्मियों के भी प्रह्लाद/} आनंददाता अर्जुन! पुनः {एडवांस ब्राह्मण परिवार में विष्णु लोकीय वैकुण्ठ की}) सम्पूर्ण सिद्धि पाने हेतु यत्न करता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

पूर्वाभ्यासेन तेन एव हियते हि अवशः अपि सः ।
जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्दब्रह्म अतिवर्तते।। 6/44

अर्थात-  उस पूर्वजन्म के अभ्यास द्वारा ही वह {अर्धयोगी ब्रह्मावत्स स्वत:} विवश होकर {योगसिद्धि हेतु} खिंचता है {और} राजयोग का {थोड़ा} ज्ञान पाने का इच्छुक भी {झाँझ-मजीरा की} आवाज़ वाले {भक्तिमार्गी चतुर्मुखी} ब्रह्मा के पार {परमब्रह्म में} चला जाता है;

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

प्रयत्नात् यतमानः तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धः ततो याति परां गतिं ।। 6/45

अर्थात- किन्तु प्रयत्नपूर्वक योगाभ्यासी योगी सम्पूर्ण पाप के धुल जाने पर अनेक जन्म में सम्पूर्ण सिद्ध हुआ, बाद में {विष्णुरूप} परमगति को पाता है।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिकः योगी तस्मात् योगी भवार्जुन।। 6/46

अर्थात- राजयोगी {दैहिक ताप वाले} तपस्वियों से बढ़कर है, आत्मज्ञानियों से भी अधिकः मतः चकर्मिभ्यः योगी अधिकः श्रेष्ठ मान्य है और कर्मकाण्डियों से {तो सहज} राजयोगी बड़ा है {ही}; तस्मात् अर्जुन योगी भव अतः हे अर्जुन! {तू आत्मस्मृति के तापसी वा त्रिगुणबद्ध कर्मकांडियों से भी श्रेष्ठ} योगी बन।

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

योगिनां अपि सर्वेषां मद्गतेन अन्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ 6/47

 अर्थात- सब योगियों में भी जो {दिल+दिमागयुक्त} श्रद्धा-भावना वाला {सहज राजयोगी} मेरे {मूर्तिमान ‘अव्यक्तमूर्ति’ (गी. 9-4) महादेव हीरो} में लगाई मन-बुद्धि द्वारा मुझको याद करता है, उसे मैं सबसे श्रेष्ठ {दिमाग वाला समझू & दिलसहित भावपूर्ण} योगी मानता हूँ।

Bhagwat Geeta Chapter 6 AtmaSanyamYog (Complete)

 

शब्दार्थ सहित विस्तृत हिंदी व्याख्या

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अध्याय 7 श्लोक 1-7 विज्ञानसहित ज्ञान का विषय श्रीभगवानुवाचः-मयि आसक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन् मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तत्…
श्रीमद्भगवद्‌गीता | अध्याय 1- श्लोक 12 से 19 तक | दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन | AdhyatmikGyan

श्रीमद्भगवद्‌गीता | अध्याय 1- श्लोक 12 से 19 तक…

तस्य सञ्जनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्य उच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।। 1/12 अर्थात -उस दुर्योधन को हर्ष उत्पन्न कराते हुए, कौरवों…
सम्पूर्ण एडवांस श्रीमद भागवत गीता – Complete  Advance Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi

सम्पूर्ण एडवांस श्रीमद भागवत गीता – Complete Advance Shrimad…

आखिर क्यों पढ़े एडवांस भगवद्गीता ?          श्रीमद् भगवद्गीता’ सम्पूर्ण विश्व में मानवजाति के लिए भगवान का वर्बली…

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