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Toggleइस पर्व को पूरे भारतवर्ष में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। कहीं बड़े रूप में तो कहीं छोटे रूप में। आप सभी जानते ही होंगे नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र और शरद माह में मनाया जाता है। ये हिन्दुओं के प्रमुख पर्वों में से एक है। नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “नौरातें”। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान देवी माँ के नौ स्वरूपों की पूजा की जाती है।
सर्वप्रथम देवताओं और असुरों की, सही परिभाषा क्या है, इसे जानना जरुरी है? क्या ये, कोई सिर्फ, बाहर की चहरे की बात है, या अंदरूनी गुणों या अवगुणों की बात है? सर्व शास्त्र शिरोमणि गीता के सोलहवें अध्याय में, देवताओं और असुरों के, सारे लक्षण बताया गया है । देवता अर्थात दिव्य गुण वाले है, और असुर अर्थात, आसुरी गुण वाले हैं, जिनमे पांच विकार (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार विद्यमान है।
चित्र, चरित्र कि यादगार है, और कहा जाता है, चेहरा दिल का दर्पण है, अर्थात इन्ही आसुरी गुणों को, दर्शाने के लिए ही, उनके चेहरे भयंकर दिखाए गए हैं । तो क्या ऐसी कोई न कोई दैवी वा आसुरी गुण, कम या ज्यादा मात्रा में, आज के मनुष्यों में, अर्थात हर एक को अपने अन्दर ही दिखाई नहीं दे रहा हैं? ।
इस घोर कलियुगी, पापाचार की दुनिया में तो, ऐसे संघार करने योग्य असुर तो घर घर में विराजमान हैं । जो अपने सितमों से, अनेक नारियों की लाज लूट रहे हैं । तो अब प्रश्न यह उठ रहा है कि
वास्तव में मनुष्य, जब ऊपर उठता है, तो देवता बनता है, और नीचे गिरता है तो, असुरों जैसे बन जाता है । इसलिए देवता और असुर, कोई स्वर्ग या नरक की बात नहीं है, जो शास्त्रों में स्वर्ग को ऊपर, या नरक को, नीचे दिखाया गया है। गीता में भी लिखा है कि, इस दुनिया में प्राणियों की सृष्टि, 2 प्रकार कि है। एक देवताई सृष्टि और दूसरी आसुरी सृष्टि । भगवद् गीता के अध्याय 16 श्लोक 6 में बोला गया है कि जब मनुष्य मात्र, दिव्य गुणों से संपन्न बन जाते हैं, तो उनको देवता, और दुनिया को स्वर्ग अर्थात सुखदायी सृष्टि कहते हैं । और जब वही मनुष्य मात्र, पांच विकारों के गिरफ्त में आ जाते हैं, तो उनको, असुर और दुनिया को नरक अर्थात दुखदायी सृष्टि कहते हैं ।
काल चक्र में आधा समय, ब्रम्हा का दिन, और आधा समय, ब्रम्हा की रात गाई हुयी है। जिसके लिए श्रीमतभागवत गीता के अध्याय 8 श्लोक 17 में बोला गया है कि – चार युगों के काल चक्र में, आधा समय अर्थात सतयुग, त्रेतायुग ये दो युग है दिन, और द्वापुर, कलियुग का आधा समय है रात जैसे दिन और रात एक साथ नहीं होते हैं, वैसे ही स्वर्ग और नरक, एक साथ नहीं होते हैं । अर्थात देवताएं और असुर एक साथ नहीं हो सकते हैं। गीता में ही आया कि, सृष्टि का आधा समय, ब्रम्हा का दिन को शुल्क पक्ष वा उत्तरायण अर्थात देवताओं का समय, और आधा समय, कृष्ण पक्ष वा दक्षिणायन अर्थात असुरों का समय है । अर्थात ये कोई, स्थूल दिन, और रात की, बात नहीं है, जहाँ पर दिन में देवतायें रहते और रात में असुर ।
पहली बात तो देवता, और असुर एक साथ हो नहीं सकते हैं ।तो क्या ये सिर्फ एक काल्पनिक कथा मात्र ही है जो कभी घटी ही न हो ? नहीं।यादगार तब ही होता है जब पहले कभी घटी होगी। 4 युगों में ये कौनसे समय की बात है ? ये वही रात्रि है, जिसके लिए शास्त्रों में कहा गया है ब्रम्हां कि रा त्रि, अर्थात कलियुग का अंत और सतयुग की आदि का संधि काल है । वास्तव में ये रात, अज्ञान अन्धकार की रात है, जब सृष्टि पर भ्रष्टाचार, पापाचार, दुख, अशांति और विषय विकार, चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं । मनुष्य मात्र असुर बन जाते हैं, इसलिए इसको दक्षिणायन, अर्थात राक्षसों का वास का स्थान भी बोला गया है। लोग धर्मभ्रष्ट, कर्मभ्रष्ट हो जाते हैं, इसी को ही गीता में, धर्म की ग्लानी का समय कहा गया है। तो वास्तविक रूप में, असुरों का संघार करना, अर्थात पंच विकारों रूपी राक्षसों का संघार करना । अर्थात अपने अन्दर, दिव्य गुणों वा शक्तियों को भर कर, अपने दुर्गुणों एवं आसुरी वृत्तियों को मिटाना । जिस कारण, माता का एक रूप, दुर्गुणों को नाश करने वाली, दुर्गुणनाशिनी, माँ दुर्गा के रूप में, पूजा होती है। काम के आधार पर नाम पड़ता है । इसका मतलब, जिन्होंने भी ऐसा कार्य अर्थात देवत्व को भर कर, अपने अन्दर की आसुरि पना को, नष्ट कर दिया है, उन्ही को देवी कहा गया है, और उन्ही की यादगार ही ये पावन पर्व है ।
अभी प्रश्न ये उठता है कि, कलियुग अंत की, इस रा त्रि में तो हर मनुष्य मात्र पतित, विकारी शक्तिहीन बन जाते हैं । ख़ास कर पुरुष प्रधान दुनिया में, स्त्री जाति तो अबला बन जाती है ।कहा भी जाता है, “यत्र नारयस्य पूजते, रमंते तत्र देवता।’’ जहाँ नारीयों का मान होता है, वहां देवतायें रमण करते है। लेकिन आज क्या वो देवियाँ देखने में आ रही हैं ? इसके विपरीत आज नारीयों पर अत्याचार की सीमा ही नहीं रही।
जैसे दिल्ली, जो भारत की राजधानी है, दो-दो गवर्मेन्ट का राज्य होने के बावजुद भी, निर्भया जैसे केस घटित हो रहे है। उस घटना पर कडी कारवाई होने के बावजुत भी, यह स्थिति परिवर्तित होने का नाम ही नहीं ले रही । आज भी हजारों की तादाद में ऐसे केसेस सामने आ रहे है। नारीयों की यह दुर्दषा को देख, कवियो से भी रहा नहीं गया, और उन्होंने उसका वर्णन कुछ इस प्रकार से किया है। “अबला नारी हाये तुम्हारी यह कहानी है। आँचल में दूध और आँखों में पानी ।” जयषंकर प्रसादजी ने भी कहा था, नारी का एक अश्रू, एक तुफान होता है। तो ऐसी कलियुग की रात्रि में वे अबलायें शक ती स्वरुप कैसे वनी? कैसे उन्होंने, ये अष्ट शक्तियां अपने में भरी, और विकारों रूपी राक्षसों का संघार किया?
इस कलियुग की घोर रात्रि, और सतयुग रूपी सवेरे के बीच का समय, जिसे पुरुषोत्तम संगमयुग कहते है, जहाँ पर ही धर्म की ग्लानी होती है, तब स्वयं सर्वशक्तिमान निराकार परमपिता परमात्मा शिव भगवान्, अपने वचनानुसार इस सृष्टि पर एक साधारण मनुष्य तन में, अवतरित होते है, भगवान् आकर, इन विकारों रूपी असुरों का, संघार कराने के लिए, सहज ज्ञान और राजयोग कि शिक्षा देकर, हर मनुष्य मात्र को, पतित विकारी असुर से, पावन निर्विकारी देवता बनने का रास्ता बताते है । जो उस रास्ते पर, अर्थात श्रीमत पर, चल अपने अन्दर दिव्य गुण, शक्तियों को भर कर, इन विकारों रूपी असुरों को, संघार कर, पूज्यनीय देवी बन जाते हैं, उन्ही की यादगार में, देवियों की पूजा, शक्ति स्वरुप में की जाती है । अर्थात इन शक्तियों ने, भगवान् शिव से राजयोग द्वारा, अपने अन्दर शक्तियां भरी है, इसीलिए वे, शिव शक्तियां कही जाती हैं। शिव के बिना शक्ति नहीं मिल सकती है ।
दुनिया ने जिनको ठुकराया, पैर की जूती समझा, परमात्मा ने आकर, उनको अपने सिर का ताज बनाया। इसकी यादगार स्वरूप हम जोर जोर से , बोलते हैं भारत माता कि , जय वन्दे मातरम्, जय मातादी-जय माता दी । लेकिन आपने कभी सोचा है, जय मातादी के साथ जय पितादी भी है। क्योंकि विधवा नारी की पूजा नहीं होती है। इसलिए शिव शक्ति कहा जाता है।
जब शिव परमपिता परमात्मा, कलियुग के अंत में इस सृष्टि पर आते हैं, तो कन्याओं -माताओं रूपी शिव-शक्तियों के हाथ में, ज्ञान का कलश रखते हैं, अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान सुनाकर, नरक की दुनिया को बदलकर, स्वर्ग बनाने की जिम्मेवारी देते हैं, जिसके यादगार में नवरात्रियों में, कलश पूजन की अनुष्ठान करते हैं। जिन नारियों को सारी दुनिया ने नीचे गिराया, अबला बनाया, भगवान् शिव आकर उन्ही नारियों को ऊपर उठाते हैं, अर्थात सबला बनाते है। शिव की शक्तियां ही, स्वर्ग के गेट खोलने की, जिम्मदारी को बखूबी निभा सकती हैं, जिसके लिए महात्मागांधी जी ने बोला है, “नारी जब कोई कार्य करने लग जाती है, तो पर्वत को भी हिला देती है।” इस कार्य में परमपिता परमात्मा, कन्या-माताओं रूपी शिव-शक्तियों को ही, आगे रखते हैं। किसी ने सत्य ही कहा है- प्रकृति और परमात्मा के प्रेमपूर्ण, अनुबंध का नाम ही नारी है। जिसकी यादगार में अर्धनारीश्वर रूप भी प्रसिद्ध है।
भगवान् शिव आकर, इस अज्ञान रूपी घोर रात्रि में, ज्ञान का दीपक देकर हम सब आत्माओं कि आत्मा रूपी ज्योति, जो जन्म मरण के चक्र में आते आते, उजियानी हो जाती है, उसे फिर से, दैदीप्य करते हैं, और अज्ञान को नष्ट कर देते हैं, जिसके लिए गीता के अध्याय 10 श्लोक 11 में आया है,
तेषां एव अनुकम्पार्थं, अहं अज्ञानजं तमः। नाशयामि आत्मभावस्थो, ज्ञानदीपेन भास्वता॥
तो जहाँ नारी, देवी स्वरूपा हुआ करती थी, वहीं आज नारी इतना कमजोर, अब ला कैसे बन गई? यह बात अवश्य विचारणीय है। परमपिता परमात्मा शिव भगवान के द्वारा, कलियुग के अंत, (स्वर्णिम संगमयुग) में स्थापित, आध्यात्मिक विश्वविद्यालय, हमें एक स्वर्णिम अवसर दे रहा है, राजयोग के अभ्यास से, नंवरबार पुरूषार्थ अनुसार, नंवरबार देवी-देवता पद प्राप्त करा रहें हैं। अलग-अलग पद प्राप्त करने की यादगार में, सभी देवी-देवताओं की, अलग अलग प्रकार से, सजावट और पूजा की जाती है। नवदुर्गा (नौ बाल कन्याओं) की तरह, आप भी अपने जीवन में, पवित्रता और दैवीगुण को धारण कर, एक पूजनीय देवी देवता बन सकते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने अच्छे कर्मों के कारण ही पूजा जाता है। वर्तमान समय में भी, अगर कोई साधारण नर वा नारी में अच्छा गुण (दैवी गुण) विद्यमान है तो हम उनको लक्ष्मी स्वरूपा देवी स्वरूपा वा देव स्वरूप कहते हैं। अब चुनाव आपके हाथ में हैं अपने अन्दर की विकारों रूपी, असुरों का संघार कर, सदा काल की सुख शांतिमय, जीवन जीने वाली देवी-देवता बनना है या, उन विकारों के वशीभूत होकर, दुखमय जीवन जीना है। हमेशा के लिए पूजनीय बनना है, या सिर्फ पूजा करने वाले पुजारी ही बनके रहना है। किसी ने आपकी इसी पूजनीय स्वरूप की महिमा करते हुए कहा है-
तू ढाल बन, तलवार बन | तू श्रृगांर कर, संहार कर
तू नारी है, नारायणी है | तू धधकती ज्वाला है,
ममता की शीतल छाया है | तू सशक्त है, स्वतन्त्र है
तू शक्ति है, तू श्रद्धा है | हे नारी तू सर्वत्र है, महान है।
अधिक जानकारी के लिए देशदेशान्तर में फैले हुए आध्यात्मिक विश्वविद्यालय के विभिन्न शाखाओं में संपर्क कर सकते हैं और इस राजयोग को सीख कर इस नवरात्रि का त्यौहार को सही अर्थ में मनाये ।
ओम् शांति
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