अभी तक हमने स्वतंत्रता दिवस पर सभी परतंत्रता रूपी बन्धनों को तोड़ने की शिक्षा को ग्रहण किया परन्तु अभी हम एक नए बंधन में अपने को बांधने जा रहे है वो है- रक्षा का बंधन
रक्षा का बंधन भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ पर सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। उन्ही त्योहारों में एक त्योहार रक्षाबंधन भी है। जो श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। वैसे तो भारतवासी हर त्योहार पर पवित्र रहने का प्रयास करते है, किंतु रक्षाबंधन एक ऐसा त्योहार है, जो हमें अपने असली पवित्र स्वरूप की याद दिलाता है। रानी कर्मावती द्वारा बहादुरशाह से रक्षा के लिए हुमायूं को राखी भेजे जाने तथा हुमायूं द्वारा उस राखी की लाज रखने हेतु रानी कर्मावती की रक्षा किये जाने की कथा सर्वविधित है। तो आखिर ये परंपरा में बदलाव क्यों आया? पुरातन कल में ब्राह्मण लोग अन्य लोगों को राखी बांधते थे किंतु आज रक्षाबंधन का त्योहार केवल भाई और बहन के रिश्ते तक सीमित रह गया।
आज के कलयुग में राखी का त्योहार को पैसों से तौलने का अवसर बन कर रह गया है। आज हर बहन अपने भाई को राखी बांधती है कि उसका भाई हर समय उसकी रक्षा करेगा, परंतु क्या हर स्थिति में, विपत्ति में, काल, दुकाल, प्राकृतिक आपदाओं में, आने वाली विनाश की भीषण भविष्यिकाओं में हर समय भाई स्वयं की, व अपनी बहन की रक्षा करने में समर्थ है? यदि है तो आज हर स्त्री समाज में सुरक्षित क्यों नही है?
रक्षाबंधन भारत में मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण पर्व होने के बावजूद भी भारत देश की महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित क्यों बनता जा रहा है? सिर्फ बहन की रक्षा की जरूरत है, और भाई स्वयं सुरक्षित है? इससे सिद्ध होता है की यह परंपरा यथार्थ नहीं है भाई की बात छोड़ दीजिए क्या देश की सर्वोच्च पदाधिकारी की रक्षा हो रही है? उनके लिए कितनी रक्षा का प्रबंधाते हैं जैसे बॉडीगार्ड और भी अनेक आधुनिक रक्षा के साधन का इंतेजाम करने पर भी क्या देखने में आ रहा है, हादसे तो बढ़ते ही चले जा रहे हैं। महात्मा गाँधी, इंदिरा गाँधी, राजीव गांधी के साथ किस प्रकार के हादसे हुए? तो जिस देश के राजा की ही सुरक्षा का कोई ठिकाना नहीं तो उस देश की प्रजा के जीवन की तो जैसे कोई परवाह ही नहीं रहेगी। इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कोई भी रक्षा के साधन व कोई भी मनुष्य मात्र दुसरे मनुष्य की रक्षा की ज़म्मेवारी निभा नहीं सकते है क्यों कि उनके स्वयं की ही रक्षा स्वयं के हाथ में नहीं है, क्योंकि आज के माहौल में असुरक्षा की बहुत सारी बाते बढ़ती जा रही है जैसे- प्रकृति की आपदाए दुर्घटनाएं, आतंकवाद, घर घर में संबंधी में अनेक प्रकार की दुश्मनी, भैरभाव आदि तो आखिर कौन है सबका रखवाला.?
कहा जाता है सबका रखवाला एक भगवान जिसके लिए कहते हैं- पितु-मातु सहायक स्वामि सखा, तुम ही एक नाथ हमारे हो॥ जिनके कछु और आधार नहीं, तिनके तुम ही रखवारे हो।
एक भगवान ही है जो सब संबंध से हमारा साथ निभाता है। जब सारे सहारे छोड़ देते हैं। तब भी वह हमारा हाथ थाम कर रखता है। वह हमारा रक्षक तब बनेगा जब सारे सहारे त्याग कर एक द्रौपदी की तरह एक को ही अपना आधार बनायेंगे। अर्थात एक बल, एक भरोसो, एक आत्म विश्वास। और यह भी कहा जाता है एकै साधे सब सधै, सब साधे सधि जाय तो आखिर भगवान सबका रखवाला होने पर भी सबकी रक्षा क्यों नहीं हो रही है?
गीता में आया है आत्मा ही अपना मित्र और आत्मा ही अपना शत्रु है। अर्थात भगवान हर मनुष्य मात्र को रक्षा का रास्ता बताता है। जिस रास्ते पर चलने से हम अपने लिए मित्र बन सदा सुरक्षित रहते है अन्यथा विपत्ति से ग्रसित रहेंगे। यही बात भगवान ने अर्जुन से भी कही है- मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58। अर्थात मेरी प्रसन्नता ऐसी सबघ् रूपी दुर्गों, रुकावटों को पार करेगा और यदि मेरे में चित मग्न हुआ तो अहंकार के कारण मेरी श्रेष्ठ बातों को नहीं सुनेगा तो सर्वथा नष्ट हो जायेगा इस प्रकार भगवान को हम बच्चों की रक्षा हेतु अर्थात रक्षा का रास्ता बताने के लिए स्वयं ही आना पड़ता है। ऊपर रहकर वो रास्ता हमें नहीं बता सकते इसीलिए गीता में श्लोक आया है परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥ अर्थात मैं संतो की रक्षा के लिए, दुराचारों के विनाश के लिए और सत धर्म की सम्पूर्ण स्थापना अर्थ कलयुग अंत और सतयुगी आदि ये दो युगों के बीच जन्म लेता हूँ साधु माना सिर्फ घर बार छोड़ कर तपस्या करने वालों की ही रक्षा होगी ऐसे बात नहीं ! बल्कि भगवान आकर जो रास्ता बताते है उस रास्ते पर चल कर. हर वर्ग के मनुष्य मात्र अर्थात गृहस्थी जीवन व्यतीत करने वाले भी जब साधु अर्थात इन्द्रियों को साधने वाले बन जाते हैं तब उन साधुओं की ही रक्षा होती है। भगवान साधु की रक्षा करने कब आते है?
समय का उल्लेख उस श्लोक से पहले वाले श्लोक में ही भगवान ने बताया है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ अर्थात धर्म की ग्लानि होने पर ही भगवान इस सृष्टि पर आते है, तो अभी कलयुग में ही धर्म की ग्लानि का समय है जहां पर धर्म के नाम पर अत्याचार, पापाचार हो रहे हैं। इसी धर्म की हानि के समय के लिए रामायण में भी आया है- जब जब होई धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी। तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा, कलयुग का अर्थात चारों युगों के अंत की वेला को ही कल्पान्त का समय कहा जाता है. इस कल्पान्त में ही भगवान के पुराने कल्प का अंत और नए कल्प की आदि करने का कर्तव्य के बारे में गीता में आया है- कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9-7। और इसी कल्प के अंत में भगवान के अवतरण के लिए रामायण में भी आया है- कल्प कल्प लगी प्रभु अवतारा कल्प का अंत अर्थात कलयुग का अंत और सतयुग के आदि का यह भगवान के अवतरण का समय को ही पुरुषोत्तम संगमयुग कहा जाता है। पुरानी दुनिया और नई दुनिया के संगम का समय भगवान इस समय पुरानी दुखी दुनिया के दुखों से हमारी रक्षा करनई सुखदायी दुनिया में जाने का रास्ता बता रहे है। यह रक्षा का रास्ता ही रक्षा का बंधन है। जिस रास्ते पर चलकर हम स्वयं को रक्षा के कवच में बाध लेते है. जिसके लिए गीता में ही आया है कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।
अर्थात हे कुंती पुत्र निश्चय जानो मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। जैसे भक्त प्रहलाद, ध्रुव, मीरा आदि की रक्षा हर पल भगवान द्वारा होती रही। भगवान आकर जो ज्ञान का रास्ता बता रहे है वो ज्ञान का सूत्र ही रक्षा का सूत्र है। ज्ञान की सभी बातों में पहली मुख्य बात है पवित्रता की, स्वयं के स्वरूप में स्थिर होना ही पवित्रता का फाउंडेशन है । स्व माना आत्मा और उसका धर्म अर्थात धारणा में स्थित होने से ही महान भय से रक्षा हो जाती है। जिसके लिए गीता में भी आया है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।। अर्थात इस आत्मा के स्वरुप में स्थित होना ही स्वधर्म की रक्षा करना और वह आत्मिक स्थिति का धर्म ही हमारी रक्षा करेगा इसीलिए कहते हैं धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात इस आत्मिक स्वरूप रूपी धर्म की धारणा जहां होगी वहाँ विजय जरूर होगी, जिसके लिए कहते हैं यतो धर्मस्ततो जयः इस आत्मा के धर्म की रक्षा करना है. इसके लिए हमें देव भान को त्यागना है. गीता में भी आया है काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। 3.37 अर्थात काम और क्रोध रूपी शत्रु से आत्मा की रक्षा करना है. यही आत्मा रक्षण ही पवित्रता का सच्चा रक्षाबंधन है।
अच्छा काम तो कभी भी किया जा सकता है। श्रावण महीना है बरसात का महीना तो भगवान बरसात के दिनों में आते है और ज्ञान की बरसात करने के लिए वो है कल्पान्त का समय जब लोगो की बुद्धि में ज्ञान बैठता है इसलिए बरसात के दिनों में ही खास राखी बांधी जाती है। वर्तमान समय भगवान बाप स्वय रक्षक विश्व की आत्माओं के रक्षक प्रकृति के रक्षक अर्थात सबके रखवाला बनकर कार्य कर रहे हैं, उनको पहचान कर उनके साथ योग युक्त होकर सदा के लिए अपने को सुरक्षित बना लीजिये। गीता में आया है योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22। अर्थात जिस चीझ की प्राप्ति नहीं हुई है वो उसका योग अर्थात वो मिल जाएगा और जो मिली हुई चीज है उसकी स्वयं अर्थात सुरक्षा स्वयं भगवान करेंगे गीता में श्लोक आया है- गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। 9.18 अर्थात भगवान ही गति अर्थात मुक्ति या सद्गति दाता पति या स्वामी अर्थात जीवन रक्षक साक्षी अर्थात सबके प्रति सम दृष्टि, परमशय और सबको शरण देने वाला शरणागत फस्थल भी है। साथ ही साथ सच्चे मित्र भी है।
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